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जब जब मारी गई नदियां
तब तब नदी की देह पर उगी
पपड़ियों के इतिहास को देख
कई रातों तक सोई नहीं यह धरती
देखे उसने कितने ही अंतिम संस्कार
नदी की देह पर उगे विश्वासों के
सदियाँ बीत गईं और औरतों के गर्भ से
मनुजों ने इस भूमि पर
स्थापित किया अपना साम्राज्य
पर वे जरा भी विचलित न हुए
उसी भूमि के नित्य होते गर्भपातों से
रोज एक नए युद्ध की नीव पड़ रही
बारूदी सुरंगें धरती की कोख तक पहुँच रही
तुम क्षमा मत करना धरती माँ
कि हम भर रहे हैं तेरा आंचल बारुद से
कि हम भर रहे हैं तेरी कोख तेजाब से
अंधाधुंध फैलते विकास के कारखाने
गला रहे तेरी काया रोज-ब-रोज
मेरी कविताएँ उदास और अकेली हैं
कि एक दृश्य उभरकर आता है
कि उसे शब्दों का पोशाक पहनाकर
मैं चीखती हूं - अब बस करो
मैं नहीं जानती मेरी चीखें किन पातालों
और खोहों से गुजरती हैं
नहीं जानती कहाँ तक पहुँच रही है मेरी आवाज
लेकिन आश्वस्त हूँ
शब्द बचे हैं जब तक हमारे सीने में
बची रहेगी यह धरती भी।
मार्मिक !!
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी !!
जवाब देंहटाएंजब तक आस तब तक विश्वास है ।
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