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श्मशान (कहानी)

दयानंद तैयार होकर बैठा था। बाहर रुक रुककर बारिश हो रही थी । अभी जून का महीना शुरू हुए दो ही दिन हुए थे ।आंगन के बाहर आम के पेड़ पर कहीं-कहीं डालियों के आड़ में दस_बीस आम थे जो देर से डाल पर लगे और अब पकने के पहले ही बारिश और हवा इसे गिरा देगी । इतने में दयानंद की नजर एक आम पर जाकर रुकी जो बिल्कुल हरा था पीला होने के कोई लक्षण भी दिखाई नहीं दे रहे थे और उस आम के ऊपर एक पीला पत्ता था मानो इस आम के सहारे अभी तक डाल पर टिका है ऐसा लग रहा था। भीतर रसोई में पत्नी तारा बची हुई चीजों की पोटली बाँधकर साथ ले जाने की तैयारी में लगी थी । रसोई से आती खटपट की आवाज़ बाहर बैठे दयानंद के मन के भीतर टूट रहे खटपट के साथ मानो मेल खा रही  है ऐसा ही कुछ वो महसूस कर रहा था । दुगनी रफ़्तार से कुछ टूट रहा है ऐसा उसे लग रहा था। यह टूटने का क्रम पिछले दस साल से शुरू  था । हर साल मई महीने के अंत में गांव में आना पंद्रह दिन रुककर फिर पोटली बाँधकर वापसी शहर की तरफ होती । दयानंद ने बेटे गौतम को कितनी बार समझाया हम यहीं रहते हैं। पर बेटा हर बार मना करता रहा। नोकरी के दिनों के दौरान सोचता था रिटायरमेंट के बाद गांव में समय बिताएंगे । बेटे की पढ़ाई और खुद की नौकरी के कारण गांव में नहीं आकर रह सका कभी जब रहने का समय आया तो बेटे को मां-बाप के गांव में रहने के कारण बार-बार गांव आने से असुविधाएं उत्पन्न होने लगी । दूसरी तरफ देखा जाए तो बहू तो यहां आने का नाम भी नहीं लेती थी। तारा का इस बात पर एक ही ब्रह्म वाक्य था ,

“ मैंने तो आकर अपने सास की गृहस्थी संभालकर रखी ,मेरे मरने के बाद मेरी बहू गृहस्थी संभालना छोड़ो देखने भी नहीं आयेगी दीमकों का भक्षण होगा सब “

गौतम  एक-एक करके नारियल और आम की पोटलियाँ ले जाकर कार में रख आया था ।दरअसल बात यह थी कि बस्ती के भीतर कार नहीं आती सब लोग बस्ती के बाहरी रख कर आते थे ।

“ चलो पापा टाइम हो रहा है ” गौतम ने जेब से मोबाइल निकलते हुए कहा ।

“ रुको क्यों हड़बड़ी कर रहा है तेरा गोवा यहां से दो घंटे की दूरी पर ही तो है ।”

पर बेटे की बात पर तारा ने फुर्ती दिखाई और वह ताला लेकर बाहर आई । दयानन्द धीरे से कुर्सी पर से उठकर बरामद में आकर खड़ा रहा । उसने देखा कुएँ पर की रस्सी वही छूट गई है । उसने तारा की और देखकर कहा

“ तुझे बहुत जल्दी है गांव छोड़कर जाने की जा कुएँ पर कि रस्सी लेकर आ “

गौतम इस बात पर नाराज हुआ “ रहने दो पापा रस्सी ही तो है ।”

“ अरे कैसे रहने दे इस ओर कोई आया तो उठा कर ले जाएगा ना ।”

“ ले जाने दो वैसे भी घर में जगह-जगह पर नल लगे हैं कौन इस्तेमाल करता है इस रस्सी का अब “

“ कौन मतलब कल को मैं तेरे उस शहर में मर जाऊँगा तब मुझे जलाने के लिये गाँव के श्मशान में लेकर आवोगे  ना तब मेरे मृतदेह पर घर के भीतर से नल का पानी लाकर डालोगे क्या ? क्या बात करता है तु ।”

इतने में तारा ने रस्सी भीतर लाकर रख दी । तब तक गौतम चला गया । तभी उनकी सहायिका माया कई से भागी भागी वहां पर आ गईं । इस बस्ती में कुल मिलाकर पच्चीस घर थे और केवल दस घर होंगे जिनकी दीवारें अपनों के साथ रह रही थी । बाकी कभी कभार खुलती और बंद होती । जो यहां रह रहे थे उनमें से ज्यादातर लोगों के घरों में माया काम करती तारा जब तक गांव में रहती थी वो आती । माया ने दरवाजे पर रखी सामान की पोटली उठाई । तारा ने ताला लगाया आगे दयानंद चल रहा था उसके पीछे तारा और माया आते समय आंगन में एक पत्थर पर तारा ने कल के चावल मछली की कढ़ी के साथ डालकर रखे थे , जिसे बिल्ली आकर खा रही थी। सब को जाता देख म्यांव म्यांव करने लगी उसकी और देखकर दयानंद ने कहा हम जा रहे हैं , वापस कब आएंगे पता नहीं । तब तक बिल्ली ने पत्थर पर डाले चावल चट कर दिए और आकर दयानंद के पैरों से बार-बार लिपटने लगी ।दयानंद रुका और उसे हटाते हुए कहने लगा तु बड़ी भाग्यशाली है रे यहां रह सकती है पर मैं अभांगा कैदखाने में वापस जा रहा हूं।

पति की इस तरह की असहायता भरी बातें सुनकर पीछे चलती तारा का मन दो टूक हो गया  पर क्या कर सकती थी गाँव में रहने से बेटे को दिक्कत हो रही थी । वही माया ने कमर पर मारी सामान की पोटली नीचे जा रही थी  उसे वो ऊपर खींचते चलते-चलते बड़बड़ा रही थी माई आपको यहां रहना था । मैं हूं ना कुछ हुआ तो सारे काम में करती दूकान पर से चिजें भी लाकर देती । पर आगे चल रहे दयानंद को उसकी बड़बड़ाहट परिहास सी लग रही थी ।

जयराम के आंगन में पहुंचते ही दयानंद के कदम रुक गए । सुबह से गौतम कभी आम की तो कभी नारियल की पोटली ले जाते देख जयराम का दिल बैठ गया । दयानंद का शहर में लौटना उसके लिये पीड़ादायक था इसलिए वो उदास होकर अंदर पलंग पर जाकर बैठ गया । दयानंद ने बाहर से आवाज दी तो धीरे-धीरे जयराम मन और तन का भारी बोझ लिए बाहर आकर बैठ गया । उसके बगल में दयानंद भी जाकर बैठा दोनों ही गुंगें बने थे इस समय जयराम की पत्नी अहिल्या दरवाजे पर खड़ी थी । उसने भरी आँखों से तारा को जाता देखा ।

“ जाकर आते हैं अहिल्या वाहिनी (भाभी ) “

“ हमेशा हम इंतजार करते हैं  जो शहर की तरफ गए हैं वे किसी न किसी उत्सवों में वापस ज़रूर आएंगे कहकर ।”

दयानंद ने अहिल्यावयनी  की बात पर कहा 

“ किसे पता कीस उत्सव में कौन लौटेगा कौन नहीं लौटेगा मरना भी तो उत्सव ही है ना देखते हैं कब लौटेंगे ।”

जयराम बोला “शुभ बोल तेरी आदत नहीं गई बुढ़ापे में भी बचपन में भी कभी भी कुछ भी कह देता था तु इसलिए तेरा बाप तेरी खूब कुटाई करता  । दोनों के बीच की हल्की मुस्कान ने वातावरण थोड़ा सा ढीला कर दिया ।

“ हां बाप उस जमाने में पिटाई कर सकते थे पर अब हमारे नसीब में कहा पिटाई छोड़ो हम अपनी मर्जी भी नहीं बता सकते हैं। “

“ दया क्या दिन थे वे और आज मैं यहां कैसे दिन निकलता हूँ ये मुझे ही मालूम है, इस बस्ती में कुल पच्चीस के लगभग घर है । कुछ के ताले लगे हैं और कुछ कभी कबार खुलते हैं कुछ हमेशा की तरह निसंतान होकर अकेले पड़े हैं ।”

“ इतनी बड़ी बस्ती और आज शमशान की नजदीकी रिश्तेदार सी लगने लगी है ना जयराम “।

“ दया मैं रोज किसी ने किसी के आंगन में जाकर बैठता हूं और उस घर के लोगों के बारे में सोचता हूं पहले वहां एक जमाने में कितना कोलाहल होता था कितने ब्याह और कितनी ही मौतें हुई उसे याद करता हूं । पूराने दिन कभी सुकून तो कभी टीस देकर जाते हैं। “

“ तू यहां रोज एक आंगन में तो कमसेकम जाकर  बैठ तो सकता है , मैं वहां शहर में खिड़की पर बैठकर अनजान लोगों को देखकर दिन काटता हूं ।पर उस भीड़ में एक भी चेहरा मेरा अपना नही है रे आंखें भी थक जाती हैं । कभी कबार नीचे उतरकर भीड़ में चल पड़ता हूं , पर हर कदम के साथ कोई ना कोई टकराता है पर जानता कोई नहीं मुझे “

अब गौतम जोर-जोर से हॉर्न बचाकर आने के लिए संकेत देने लगा ।

जाते-जाते मुर्गियां देखकर तारा ने कहा “ अहिल्या वाहिनी मुर्गियां पालन आपने छोड़ा नहीं ?”

“ पहले खाने के लिए या फिर बेचने के लिए पालते थे, अब कुत्ते ,बिल्ली और मुर्गियों के होने से ही बस्ती उजड़ने से बची है। और पालतू जानवरों से बात करके हम खुद को गुंगे होने से बचा रहे हैं। “

कार में बैठते समय दयानंद का पैर ऊपर नहीं उठ रहा था जैसे लकवा मारा है । तो दूसरी ओर से आंगन के बाहर आकर जयराम जाते हुए दयानंद को देख रहा था। दयानंद ने पीछे मुड़कर हाथ हिलाया ।

गौतम को उसने विरधन्य भगवान के मंदिर में रुकने के लिए कहा मंदिर के नाम पर एक छोटा सा गड्डा बना हुआ था राहगीर उसी गड्ढे में फूल ,फल डालते नमस्कार करके चले जाते थे । “ गाड़ी रोकेंगे तो देर हो जाएगी पापा यही से नमस्कार करो “ । गौतम ने कहा दयानंद ने गुड़हल का फूल तोड़कर लाया था हाथों में ही दबा दिया मानो मन को मार रहा है।

       अक्सर दयानंद और उसके पोते के बीच मीठी नोंकझोक होती रहती थी । पोता कहता मेरे पापा का घर बहुत बड़ा है । उस बात पर दयानंद कहता तेरे पापा का घर मेरे पापा के गांव वाले घर के सामने इतना छोटा है कि मेरे माँ के पान के डब्बे जितना छोटा समझा बरखुरदार जब भी दयानंद ऐसा कहता गौतम गुस्से से पापा की ओर देखता ।

रोज़ शाम तारा के साथ वो नीचे जाकर कुछ देर के लिए बगीचे के बेंच पर बैठता और कभी-कभार  पास की दुकान से चॉकलेट लेकर आता  । यहां एक परेशानी थी की बहू और बेटा सेहत के नाम पर शक्कर मिटा इन सबसे दूर रहते और उन्हें भी यही सलाह देते । पर दयानंद को ना डायबिटीज थी ना बी पी और यह सब उसको वाहयात लगता । इसलिए कभी कभार मीठे के नाम पर पति-पत्नी चॉकलेट लेकर खाते । गांव से हरसिंगर का पौधा लाकर दयानंद ने यहां के बगीचे के माली के हाथों लगाया था वह पौधा अब धीरे-धीरे जड़ पकड़ने लगा था  जभी दयानंद अपने फ्लैट की बालकनी से उस पौधे को देखता उसका मन खुशी से हरा हो जाता ।

शाम के पाँच बजते बजते बच्चे , बूढ़े और युवाओं का बगीजे में आना शुरू होता इसतरह बेंचों पर बैठकर सब की अपनी अपनी कहानी चलती रहती । ऐसा लगता था कि इन सब बुजुर्गों का पूरे दिन में से शाम का समय मानो प्रिया समय हो । दयानंद के भी कुछ मित्र यहां बने थे ,पर जयराम के साथ उसकी मित्रता अपनी मिट्टी की गंध वाली थी । इसीलिए वह अक्सर उन मित्रों से जयराम की बातें करता और दूर दराज में बैठे अपने मित्र को याद करता । हर बूढ़े व्यक्ति के सर के ऊपर दो पीढ़ियों का फलता फूलता नया संसार होता है । उसके बच्चे और बच्चों के बच्चे उन सबके बीच समन्वय बिठाना घड़ी की सुई जितना ही कठिन हर सुई अकेली किसी के साथ नहीं पर हर वक्त एक दूसरे के पास जाने की कोशिश में लगे हैं पर पहुँचेंगे कभी नहीं ।

दिसंबर का महीना चल रहा था और सूरज बढ़ती हुई ठंड से भागकर कुछ जल्दी ही रज़ाई ओढ़ लेता । छः बजे भी नहीं थे की अंधियारे ने समय के चक्र पर अपना दावा ठोक दिया । दयानंद ने बगीचे के बेंच पर से उठते हुए कहां “ तुम धीरे-धीरे आगे चलो मैं चॉकलेट लेकर आता हूं । “

“ आज रहने दो अंधेरा हो गया है ।”

अरे अभी आया कहकर दयानंद चला गया तारा ने कुछ नहीं कहा वह बगीचे से जब बाहर आ रही थी तब उसकी नजर हरसिंगर के पौधे पर पड़ी पौधा क्या कहु अब धीरे-धीरे पेड़ होता जा रहा था कुछ कलियाँ निकल आई थी । कुछ देर बाद खील भी जाएगी तारा ने कुछ कलियाँ तोड़ी और नाक के पास ले जाकर खुशबू सुघ ली बहुत सुंदर गांव के आंगन में लगे हरसिंगर की याद आई इस समय खिले होगे वहां के पेड़ पर भी फूल इतना सोचते -सोचते वो बगीचे के बाहर आकर सड़क पर से यही अंदाज़ लेकर चल रही थी कि जिससे वह फ्लैट के पास पहुंचते पहुंचते पति चॉकलेट लेकर  आ जाएगा। पर बहुत देर तक खड़ी रहने पर भी दयानंद नहीं लौटा पैरों में दर्द होने लगा तो वहीं सिक्योरिटी गार्ड की कुर्सी पर बैठ गई। ऊपर फ्लैट में स्नेह और गौतम के बीच किसी बात को लेकर बहस चल रही थी। तारा से अब बैठा नहीं जा रहा था उठने का उपक्रम कर ही रही थी , कि सड़क की ओर शोर होता सुनाई दिया । निशप्रयास तारा के कदम उस ओर मुड़ गए कुछ दूरी पर से ही तारा के जहन में एक बात स्पष्ट हो चली कि किसी का गंभीर रूप से एक्सीडेंट हो गया है । पर कौन ? इस प्रश्न का उत्तर उसने भीड़ को चीरकर हासिल किया । तारा के मुट्ठी में बंद हरसिंगर की कलियाँ फूल बनकर दयानंद के खून से लथपथ देह पर गिरी । भीड़ के सौ सवाल और देखें अनदेखे प्रश्न कितनी ही बातें कोई कह रहा था टक्कर मारकर चला गया साला तो कोई नसीहत दे रहा था रात को क्यों निकलना तो कोई कहा गया इन बुढो को घर में बैठने के लिए क्या होता है ? महानगर, शहर के ये प्रश्न जहां ये बुजुर्ग आते नहीं लाए जाते हैं और जाते नहीं जाया नहीं जाता है।

तारा खिड़की पर बैठी थी , उसकी एक नजर बगीचे के बेंच पर थी जहां आज शाम वो दोनों बैठे थे और एक कान उसने बहू के मोबाइल की तरफ रखा था ये सोचकर की कब उसे पति के सकुशलता का समाचार मिलेगा । पर दोनों और एक जड़ता सी थी । स्नेहा ने बड़ी मुश्किल से बेटे को सुला दिया । कही बार अपने भाई और गौतम को फ़ोन लगाया पर उत्तर नहीं मिला फिर वो जाकर मां के पास बैठ गई । उसने फोन वही टेबल पर साइलेंट मोड में छोड़ दिया पर उसकी नजर स्रिन पर टिकी थी । दुसरी ओर माँ जी के अनगिनत सवाल शुरू थे । तभी मोबाइल की स्क्रीन प्रकाशमान हुई ।

“ हेलो स्नेहा भाई का फोन था स्नेहा बहुत बुरी खबर है पापा नहीं रहे एक तरफ बेटा पलंग पर सोया था तो बाहर बैठी मां किसी  मनहुस ख़बर को सुनना ना पड़े इसलिए ईश्वर की पहरेदारी कर रही थी । स्नेहा ने अपने ह्रदय के भीतर के दुःख को कुछ इस तरह दबाया जैसे किसी भारी भरकम वाहन के नीचे कोई व्यक्ति आता और शून्य बन जाता है । बिल्डिंग के दो-चार पुरुष भी इस समय अस्पताल में मौजूद थे इसलिए दयानद की मृत्यु की खबर आस-पड़ोस को चल पड़ी । स्नेहा मां का सामना नहीं करने की स्थिति में बिना आवाज किए फ्लैट के बाहर आए इस तरह धीरे-धीरे पड़ोसी जमा होने लगे । सुबह के आठ बजते बजते मां जी ने हस्पताल जाने की ज़िद पकड़ ली और उस ज़िद के जवाब में एंबुलेंस आकर नीचे खड़ी रही । तारा खिड़की के पास भागी एंबुलेंस के भीतर का दृश्य इस समय तारा के सामने था कुछ बिखराव चीजों के साथ-साथ मन का भी होता है चीजों को समेटने के बाद भी किसी के छोड़ जाने से जो बिखराव आता है वह मृत्यु पर्रयत हम समेट नहीं सकते हैं ।धीरे-धीरे रिश्तेदार पड़ोसी गांव वाले जो शहर में बसे थे वह घर में जुड़ने लगे एक्सीडेंट  में पूरा सर फट गया था । पॉलिथीन में बंदी देह पत्नी और बेटे का शौक जो शब्दों में बयान के बाहर होता है हमेशा से लोग जुड़ते गए और अंतिम संस्कार की बातें चली और अंत में तय किया गया कि शहर के शमशान में अंतिम संस्कार किया जाना बेहतर होग ।


लोग का जमावड़ा लगा  था , पर तारा के लिए वे सब अपरिचित थे । जमीन से उखाड़कर पौधा तो दूसरी जमीन में पनप सकता है ,जड़ भी पकड़ता है पर वृक्ष नहीं कुछ ऐसा ही था यहां पर भी उसके परिचित गांव  में छुटे थे । तारा दुल्हन के भेस से लेकर जो एक युग उसने दयानंद के साथ जिया था उसे अपने आंसुओं के साथ इस समय पी रही थी । 

     इतने में किसी ने कहा मां जी को थोड़ा पानी पिला दो रो-रोकर कंठ सूख गया है । स्नेहा पानी का गिलास लेकर तारा के पास गई तारा ने पीने से इनकार करते हुए कहा

" नहीं नहीं अब तो गांव के कुएं का पानी ही कंठ से उतरेगा चलो अब बस अब कुछ देर के लिए गांव के घर में भी अंतिम विश्राम लेना है गौतम के पापा को “

कहते-कहते वो वहां से उठी और पति के मृतदेह के पास जाकर उसके चेहरे पर से हाथ फेरने लगी फिर वहां से उठकर गौतम के पास गई और बेटे की गोदी में पड़कर रोने लगी

” बेटा चलो तैयारी करो हमें गांव जाना है गांव के शमशान पर ही इनका अधिकार है वही पर उनकी राख होनी चाहिए।

 यह सुनते ही वहां पर जमें कुछ पुरुष एक दूसरे का मुंह ताकने लगे गौतम के कहने पर उन्होंने यहां के शमशान पर ले जाने का पूरा इंतजाम कर दिया था । यह समय गौतम के लिए बहुत भारी हो रहा था एक तरफ पिता को  अंत्येष्टि के लिए गांव लेकर गए तो  कम-से-कम बीस दिन तक वहां रहना असुविधाभरा था  पत्नी और खुद उसके लिए भी  अंत में मां को समझकर उसने यही पर अंतिम संस्कार करने के लिए तैयार किया । माये अपनी खुद की इच्छा तो रखती हैं पर सर्वोपरि नहीं ।

  पिछले कुछ दिन तारा ने  खिड़की में से बगीचे के बेंच को देखकर निकाले थे तो एक और घर में रखी पति की अस्थियां थी जिसे गौतम गंगा में बहाने की बात करता । जैसे ही पोते की छुट्टीयां शुरू  हुई तारा ने बेटे से गांव  जाने की इच्छा जताई पर बेटा तैयार नहीं था । वो बार-बार उससे आग्रह करती रही । एक दिन तंग आकर उसने कहा

" मां आप तो जिद्द कर रही हैं गांव जाने की „ 

” काश मैं ये ज़िद पहले करती  तो कम से कम तेरे पिताजी की इच्छा पूरी होती और हां मैं  उनकी  अस्तियों को गांव ले जाना चाहती हूं गांव का शमशान तो नसीब नहीं हुआ पूर्वजों की खेती की मिट्टी वहां के नदी का पानी तो नसीब हो ।

    स्नेहा को गांव में आने के लिए तैयार करने के लिए गौतम को थोड़ा समय लगा आखिर वह भी समझ रही थी पापा की मृत्यु के बाद मां पहली बार गांव जा रही है , उसे यूं अकेला गौतम के साथ भेजना भी उसे ठीक नहीं लग रहा था । अनुमन सारी चीजों को गाँठ में बांध बांधकर  तारा ने ले जाने के लिए सामानों की पोटली बांधी । हर चीज के साथ पति की यादें उसका लगाव और भविष्य में की गई योजनाएं न जाने क्या-क्या था । छोड़कर जाने वाले क्या क्या छोड़कर चले जाते हैं अनुपस्थिति होकर भी उपस्थित रहते है और अधिक प्रखरता के साथ  सुबह से गौतम स्नेह और तारा जाने की तैयारी में लगे थे , पर गौतम और तारा के साथ इस समय एक खालीपन था । गाड़ी बिल्डिंग से थोड़ी आगे  आयी थी कि बगीचे में दयानंद ने लगायें  हरसिंगार पर तारा की नजर पड़ी कल शाम वो यहां आकर कुछ पल बैठी थी मानो उस जगह को अंतिम विदाई देने आई हो । रास्ते भर में उनके साथ एक मौन चलता रहा । विरधन्या  के मंदिर के पास से गुजरते समय गौतम के चेहरे पर एक पछतावा था।  तारा ने पर्स में से  घर की चाबियां निकाली मानो उसके बाजू में दयानंद बैठा है और हर बार की तरह इस बार भी वो गांव  पास आते-आते तारा को कहेगा  चाबियां लेकर आई हो ना ला दो मुझे पर अब उसे ही जाकर दरवाजा खोलना पड़ेगा हाथ में पड़ी चाबियों का गुच्छा  एकाएक कुछ भारी सा लगने लगा । हां भारी था बेटे गौतम का और  उसका मन और भारी पड़ रहा था आंखों का पानी  पलकों पर.....

            इतने दिनों तक तारा का मन दयानंद की यादों के साथ और ना होने के साथ लुका छुपी का खेल खेल रहा  था । अब तक उसके गम के आंसू जड़ तक नहीं पहुंचे थे । जैसे ही उनकी कार बस्ती के बाहर आकर खड़ी रही बस्ती के बुजुर्ग दरवाजे पर आकर खड़े रहे , तब तक जयराम को भी गौतम और तारा के आने की खबर पहुंच गई थी । पर वो बाहर नहीं आया  ना ही इस बार उसकी दोनों बाहें  फैली दयानंद के स्वागत  करके गले लगाने के लिए यहां तक की उसके अगले चार-पांच  दिनों तक दया की घर की तरफ भी उसने नहीं देखा । कभी-कभी लगता है ताला लगाने से भी बड़ी जिम्मेदारी ताला खोलने  की होती है । तारा के मन में बस यही बात बैठ गई थी कि काश वे गांव में ही रहते तो पति एक्सीडेंट का शिकार नहीं होता । दो दिन में ही स्नेह का मन उचट गया और वो वापसी की बोली बोलने लगी । चार दिन होते होते गौतम ने भी जाने का मन बना लिया पर तारा ने आने से साफ मना कर दिया और तारा के जिद्दी के सामने वे दोनों हार गए ।

    गौतम ने जाते समय माया को बुलाकर सब कुछ समझाया था । अब माया रोज रात को तारा के घर में ही आकर सोती थी ‌एक दिन वह बहुत देर तक बस्ती के बाहर बैठी रही वहां से शमशान बिल्कुल साफ नजर आता था । पर बीच में कुछ था जो गंतव्य पर पहुंचने के पहले ही अदृश्य हो रहा था । वो  धीरे से  बुदबुदाई 

”शायद पानी न लगने के कारण साफ दिखाई नहीं दे रहा है ।„

  वहां से वो सहसा उठी और घर के भीतर गई घड़ा और रस्सी जो दयानंद ने जाते हुए ये कहते हुए रस्सी भीतर रखने के लिए कहां था , कल को अगर मैं मर गया तो मेरी लाश को नहलाने के लिए कुएँ में से पानी निकालने के लिए रस्सी चाहिए ना ? तारा रस्सी और घड़ा लेकर कुएँ पर गई और एक घड़ा पानी लेकर भीतर आई और गुसलखाने में जाकर उसने  सर पर से कुएँ का ठंडा पानी डाल दिया और वही छपाक से बैठकर रोने लगी मानो गमी मना रही हो पिछले घर की वासती ने रोने की आवाज सुनी और वह आंगन में आगयी । कुछ देर बाद तारा गिले बालों के साथ जब बाहर आए तो वांसती से लिपटकर खूब रोइ । वैसे भी बस्ती में नीरवता सांये की तरह हमेशा पसरी ही रहती और ऐसे में रोने की आवाज सब के कानों में पहुंच गई । कुछ ही देर में दयानंद के जाने से तारा के कपाल पर से हटे सिंदूर का शोक सबने जिया ।

         गौतम समाधि का काम गोविंद मिस्त्री को देकर गया था , पर तारा का विशेष रुचि न दिखाने के कारण काम अभी तक नहीं शुरू हुआ था ।एक सुबह गोविंद मिस्त्री आकर बरामदे में बैठ गया और पुरानी यादों को ताजा करने लगा । उसने कहा 

“ तारा वयनी जब पंचायत से श्मशान बाँधने के लिए सरकारी खाते से पैसे आए थे ना तब दयानंद दादा ने मुझे बुलाकर शमशान बांधने का काम दिया था । रोज हॉटल से चाय नाश्ता लाकर देता और हमारे पास बैठता कहता था गोविंद एक भी पत्थर टस से मस नहीं होना चाहिए हां सीमेंट बालू सही-सही इस्तेमाल करो मरने के बाद हमें यही रहना है ना और हम सब हंसते थे । काश दयानंद दादा का अंतिम संस्कार इसी शमशान पर होता ।

       तारा गांव में रह तो रही थी पर खोए हुए मन से रोज शाम बस्ती के बाहर जाकर बैठती देर तक शमशान कि ओर देखकर कुछ सोचती । एक दिन भरीं दोपहर जब बस्ती के सारे बुजुर्ग सो रहे थे , तब उसने पति के अस्तियाँ उठाई और शमशान की तरफ चलने लगी । शमशान की जमीन पर अस्तियाँ सुपुर्द कर वापस आई । उसने देखा शमशान पूरी तरह से कंटीली झाड़ियों से भरा है इसलिए उसे काफी दिक्कत हुई । आते समय बहुत  सँभलकर चलने पर भी एक कळकी का कांटा उसके पैर में चुभ ही गया । शाम को जब वंसती आई तो कांटा निकालने के लिए दोनों बैठ गए ।  तभी धीरे-धीरे चलते हुए जयराम आकर बरामदे में बैठ गया । उसने पूछा क्या हुआ ?

“ वाहिनी के पैर में कळकी का कांटा चुभ गया है ।" 

” परसों मंल्लु बता रहा था पूरा शमशान कळकी के कांटों से भरा पड़ा है । ऊपर के बस्ती का कोई मर गया था शव को ले जाने में बहुत दिक्कत हुई । यह सुनते ही तारा को लगा मानो चोरी पकड़ी गई हो । पैर पर से भान हट गया जैसे ही पैर हिला वासती के हाथ की सुई उसके पैर में चुभ गई और तारा जोर से चिल्लाई “ वाहिनी पैर मत हिलाओ ना ”  जयराम ने अपनी बात जारी रखी “ हमारे शमशान का एक नियम है , और उस नियम का पालन करते हुए मैंने बचपन से इस शमशान को देखा है , अगर एक शव जलाया जाता है तो शमशान और दो शवों की राख मांगता है ।”

हमने अपने बाबा से सुना था , यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब एक परिवार में  बाप मरा उसके तीन बेटे थे । एक ओर बाप का शव पड़ा था तो दूसरी ओर तीनों बेटे आपस में इस बात पर लड़ रहे थे की अंतिम संस्कार का खर्च कौन करेगा और होते-होते रात हो गई रात में शमशान पर शव जलाने की मनाई थी। अगली सुबह भी झगड़ा शुरू रहा अंत में लाश सड़ने लगी तो सड़ी हुई लाश शमशान पर ले जाकर जलाया गया उसके कुछ दिन बाद एक के बाद एक करके तीनों लड़के मर गए कहते हैं बासी लाश जलाने के कारण ऐसा हुआ ।

वासंती ने भी हां में हां मिलाते हुए कहा  “ सच है वयनी एक मरा तो पीछे-पीछे दो और तो मर ही जाते हैं  , ये नियम आजतक कभी नहीं टूटा है ।” 

जयराम के आंखों में अब आंसू थे वह दयानंद को याद करके रो रहा था । “ मैं एक नजर देखाता था मेरे दया को कितना दूर था गांव तारावयनी ? मेरे  दया का शव लेकर आना था मेरे दया को यहां की मिट्टी यहां का पानी नसीब होता । शमशान पर अपना अधिकार बजाता मेरा दया देखो उसके ना होने से अब शमशान भी बंजर पड़ा है । सच तो आप लोगों को उसे शहर ले जाने की ज़िद ही नहीं करनी थी  दया अब हम सब के बीच होता । 

  उस रात तारा को बिल्कुल नींद नहीं आई । बार-बार जयराम की बातें दिमाग़ में घूमने लगीं किस तरह तीनों बेटों ने अंतिम संस्कार को लेकर झगड़ा किया और बाप की लाश को सड़ा दिया और सड़ी लाश को शमशान में ले जाकर जलाया । यह घटना  पूरी रात दिमाग में चक्कर लगाती रही । शमशान पर उसने सबसे छुपाकर रखी अस्तियांँ इस बात को लेकर भी वह चिंतित हो रही थी बासी राख़ हां बासी राख.... शमशान तो लाश को राख बनता है यही नियम है और वहां से राख उठाने के बाद अस्थियां हो जाती है यह नियम मैंने तोड़ा है । मुझे शमशान पर अस्तियां नहीं रखनी थी । मैंने गलत किया कोई अनहोनी हुई तो गौतम और उसके बच्चे के साथ कुछ अनिष्ट हो गया तो ... अब वो सुबह का इंतजार करने लगी ।  अहिल्या वयनी के बांग में से मुर्गे ने अपना अलार्म बजा दिया । उस अलार्म के साथ माया उठकर चली गई ।  सुबह खेती में से उपले लाने के बहाने तारा टोकरी लेकर चल पड़ी ।  सीधे शमशान पर जाकर उसने झाड़ियों में से अस्थियां उठाई और घर आई पर इस बार उसे एक नहीं दो-तीन जगह पर कळकी के कांटे चुभे 

     शाम को वासंती को लेकर पैर में  चुभे कांटे निकालने के लिए बैठ गई ।  वासंती ने कहा " तारावयनी उस दिन ठीक नहीं किया था आपने अब सही किया  शमशान के भी नियम होते हैं ना हमें भी दुख है दयाअण्णा का अंतिम संस्कार शहर में ही किया अब क्या कर सकते हैं वयनी  जो हो गया वो तो हो गया ।”  तारा आवाक होकर वासंती को देखती रही ।

“ हां वयनी उस दिन मैंने आपको शमशान की तरफ  से आते हुए देखा था और बाद में देखा तो अस्थियां  घर में से गायब थी ।  जयराम अण्णा की बातें सुनकर आप डर गई और आज सुबह शमशान पर से आते भी आपको मैंने देखा था ।”

“ हां मुझसे गलती हुई क्या करूं मैं तेरे अण्णा की इच्छा थी उसकी राख़ गांव के शमशान पर ही होनी चाहिए पता है बसंती जिस दिन उनका एक्सीडेंट हुआ था उसके कुछ दिनों पहले  उन्होंने मुझसे कहा था। तारा इस बार मैं गांव से वापस शहर आना नहीं चाहता था। पर क्या करें बेटे की दिक्कत हमारी दिक्कत ना  कहां-कहां दौड़ेगा अकेला अब मैंने मन को भी समझाया है पर मेरी एक ही इच्छा है कल को यहां मैं मर  गया तो कैसे भी करके मुझे मेरे गांव के शमशान पर ही ले जाना और हां पैसों की चिंता कोई नहीं करेगा वो जो लाल सुटकेस है ना उसमें मैंने बीस हजार अलग से रख छोड़े हैं । शायद किसी ने सच ही  कहा है अंतिम समय जब आता है तो इंसान जान जाता है । इतना कहकर वो भीतर गई और लाल सूटकेस में से बीस हजार लेकर बाहर आई । “ चलो वासंती  गोविंद मिस्त्री के पास जाकर आते हैं । उसे कहूंगी कल समाधि की जमीन तय करके काम शुरू करो ।”  इतना कहकर तारा ने कुएं पर से रस्सी लाकर अंदर रख दी  । और वे दोनों गोविंद मिस्त्री के घर की तरफ चलने लगे ।

    














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रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं