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औरत

वो औरत थी उसकी

वो जब चाहता

अपनी मर्ज़ी से

उसे अलगनी पर से उतारता

इस्तेमाल करता और

फिर वही ऱख देता 

फिर आता फिर जाता


जितनी बार उसे उतारा जाता

उसके शरिर मे एक नस टूट जाती

चमड़ी से कुछ लहू नजर आता

जितनी बार उसे उतारा जाता

उसके नाखुनों से भूमि कुरेदी जाती


हर कुरदन जन्म देती एक सवाल 

उसके आँखो का खा़रापानी

जम जाता उसके घाव पे

उसके लड़ख़डा़ते पैर रक्तरंजित मन

उसकी लाचारी उसकी बेबसी

उन्ह तमाम पुरूषो के लिये

एक प्रश्न छोड़ जाती है

औरत केवल देह मात्र है  ? 

टिप्पणियाँ

  1. ओह्ह... बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति।
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ०४ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. झिंझोड़ कर रख दिया। दिल ने तड़प के कहा काश ये सच ना हो ! अभिनंदन।

    जवाब देंहटाएं

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