तुम देख रही हो ना
नदी के तट पर नारियल के
तने हुए वृक्ष असंख्य
वे खड़े रहते हैं नदी के लिए
हर अच्छे-बुरे मौसम में
होना चाहता हूं
मैं भी
नारियल का वह वृक्ष
खड़ा /झूमता /तना हुआ
तुम्हारे लिए
जीवन के सभी मौसम में
तुम बनो नदी
मैं बनूं नारियल का वृक्ष
झूमता हुआ /तना हुआ
काली रात की चादर ओढ़े आसमान के मध्य धवल चंद्रमा कुछ ऐसा ही आभास होता है जैसे दु:ख के घेरे में फंसा सुख का एक लम्हां दुख़ क्यों नहीं चला जाता है किसी निर्जन बियाबांन में सन्यासी की तरह दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता कभी कभी सुख के पैरों में अविश्वास के कण लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर दु:ख को गले लगाती हूं और तय करती हूं एक निर्जन बियाबान का सफ़र
अच्छी कविता। नदी के लिए वृक्ष का होना जरूरी है
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