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सवाल ?

ठीक उसी समय रहा
अंधेरा मेरी दहलीज पर
जब आसमान पूर्ण चंद्र से
सुशोभित रहा

ठीक उसी समय
रंग रहे फीके मेरे चेहरे पर के
जब इर्द गिर्द उड़ता रहा
रंग त्योहारों का

ठीक उसी समय
मैं उपवास पर निकल गई
जब अनेक मिष्ठानों से
भरी रही मेरी या
फिर तेरी रसोई

ठीक उसी समय
मैं तपती रही
जब पूरी सृष्टि
मेघ में नहाती रही

मेरा इतना भर सवाल है
तुमसे आज
ठीक उसी समय तुमने
मुझे उदास क्यों किया
जब इर्द गिर्द हर्ष पसरा था ?
ठीक उसी समय
तुमने मुझे अनछुवा क्यों रखा
जब मेरी देह
आखिरी बंसत की
आहट से विचलित हो रही थी?

ठीक उसी समय
तुमने क्यों मेरे शब्दों के
जगह पर रख दिये
आंसुओं के जलाशय
जब मैं चाहती थी
एक खुबसूरत भाषा में
कर दूं अपना प्रेम निवेदन
जैसे अभी अभी
एक खिलखिलाते प्रेमी जोड़ने
चुम लिया है एक दुसरे
का माथा और अंबर
झुक गया लाल रंग की
काया ओढे

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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।