मैं तुम्हे मुक्त कर रही हूँ
इस रिश्ते की डोर से
कही बार मैंने महसूस किया है
तुम्हारी पीठ पर
मेरा अदृ्श्य बोझ
इन दिनों अधिक बढ़ रहा है
हम दोंनो के बीच
कदमों का फासला भी
कोशिश करती हूँ कह दूँ
तुम्हारे कानों में
वही प्रेम के मंत्र
जो प्रथम मुलाकात में
तुमने अनायास ही घोले थे
मेरे कानों में
और समा गये थे तुम
मेरे रोम -रोम में
मैं स्वार्थी तो थी ही
पर थोड़ी बेफ़िक्र भी हो गई थी
तुम्हारी चाहत में
दिन-रात तुम्हारे ही इर्द -गिर्द
चाहती थी मौजुदगी
जब तुम तल्लीन हो जाते थे
अपने कर्मो में
मैं रहती थी प्रयासरत
अपनी मौजूदगी का एहसास
कराने में
जब कभी पड़ता था
तुम्हारे माथे पर बल
और सिमट जाती थी
ललाट की सीधी सपाट रेखाएँ
मैं रख देती थी धीरे से
तुम्हारे गम्भीर होंठो पर
अपनी उँगलियों को
मेरा रूठना तो सिर्फ इसलिए होता था
कि मैं तैरती रहूँ तुम्हारे मनाने तक
तुम्हारी ही श्वास एवं प्रच्छवास की
उन्नत होती तरंगों पर
जिम्मेदारियों के चक्र में
जब जम जाती थी
थकावट की उमस भरी धूप
और शिथिल पड़ जाती थी मैं
तुम मुझे उभारते
बिना हाथों का स्पर्श किये
और रख़ देते थे
मेरे कदमों के नीचे
एक तह हौसले की
पर इस जद्दोजहत में
तुम गुजरते थे
पीडाओं के गहनतम गहराइयों से
तुम टटोलते थें
इस रिश्ते का अस्तित्व
सहते होगे तूम भी
अनगिनत यांतनाये
जब कभी तुम्हे खींचनी पड़ी होगी
हम दोनों के रिश्ते के बीच
एक महीन विभाजक रेखा
तब शायद तुम्हे होता होगा अपरिमित दुःख
इसलिये मैने आज खोल दिये हैं
तुम्हारी मुक्ति के प्रत्येक दरवाजे
अपने हृदय पर
कठोर पाषण खण्ड रखकर
जिसमें सुरक्षित रखा है
तुम्हारा प्रेम और सुनहरी स्मृतियों को
हमेशा हमेशा के लिए।
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