मुल लेखक- गोकुळदास प्रभू
तुळशी कितें म्हणटा
अनुवादक - सरिता सैल
तुलसी
श्रावण मास के दिन थे। बाहर बारिश हो रही थी। पानी की तेज धार किसी हठीले बच्चे के रोने के स्वर जैसी लग रही थी। कुछ देर वह बारिश को निहारता रहा। आज पूरा दिन वो घर के भीतर ही बैठा रहा इसलिए कुछ देर बाहर खुली हवा में घूम आने का उसने निर्णय किया। बाहर जाने के लिए उसे कपड़े बदलते देख माँ ने पूछा,
" बाहर जा रहा है क्या?"
"हां "
"तो एक काम करते आना। भटजी के घर जाकर उन्हें याद दिला देना कि कल श्राद्ध है।"
परसों माँ ने ही फोन पर याद दिलाया था कि पिता जी का श्राद्ध है। मांँ आज भी हम सब भाई बहनों के बीच पुल का काम करती है। फोन कर सबकी खब़र लेते रहना, नागपंचमी, गोकुलाष्टमी पर बुलाना, सब मां ही करती है। "मेले में अब केवल बारह दिन ही बचे हैं। तुम कब आ रहे हो? साथ में बच्चों और बहू को लेकर आना। सबसे मिलना भी हो जाएगा।" इसी तरह वो बाकी भाई- बहनों को भी बुलाती है। सबको एक समय पर एक जगह इकट्ठा कर मिलाने का काम मांँ हमेशा से करती आयी है।
" भटजी को चार-पांच दिन पहले कहा था। अब तक भूल गये होंगे। उम्र हो गई है न उसकी" मां ने कहा।
"कल के लिए कुछ सामान भी लाना है क्या?"
" नहीं! नहीं! सब कुछ भटजी लेकर आएंगे। तुम बस उन्हें सुबह समय पर आने के लिए कह देना।"
" ठीक है। "
उसने छाता खोला और बाहर निकल गया। चलते हुए वह सोचने लगा, पहले कहाँ जाऊं? भटजी के पास या फिर पश्चिम दिशा की ओर। यह रास्ता समंदर तक जाता है और पूर्व दिशा की ओर जाने वाला रास्ता राजा के पुराने राजमहल तक जाकर खत्म़ होता था। दक्षिण की तरफ चलने लगुगा तो भटजी का घर आ जायेगा । उसने सोचा, पहले भटजी के घर जाकर उन्हें कल श्राद्ध के बारे में याद दिलाकर आता हूं।"
चलते हुए उसने देखा, अब रास्ते के दोनों तरफ दुकानों की संख्या बढ़ रही है। पुरानी दुकानों को तोड़कर नई इमारतें खड़ी हो गई हैं और कहीं-कहीं बैंकों की शाखाएं भी खुल गई है। एयरटेल, वोडाफोन के रिचार्ज कूपनो के साइनबोर्ड जगह-जगह पर लगे हैं। एक समय था जब दवाइयाँ, फल ,सब्जियां लाने के लिए दूर जाना पड़ता था। अब समय के हाथ में हाथ मिलाकर मेरा गांंव भी आगे बढ़ रहा है। यह देखकर उसे अच्छा लगा।
जैसे ही वह एयरटेल रिचार्ज की दुकान के सामने से गुजरा, दुकान के बरामदें में बैठकर कोई मंद स्वर में लोकगीत की पंक्तियां गुनगुना रहा था। बहुत पहले उसके घर में काम करने वाली कुणबिण ( एक जाति) यह गाना गाती थी। आज फिर से यह गाना सुनकर उसे उत्सुकता हुई। बारिश की आवाज के साथ यह भीगता हुआ क्षीण स्वर किसका है? उसने पीछे मुड़कर देखा। एक बूढ़ी औरत दुकान के बरामदे में बैठी थी। उसकी नजर बारिश को भेदकर दूर कहीं विचर रही थी। शायद किसी को याद कर वह ये गीत गा रही थी।
उसके चेहरे पर एक दबी सी मुस्कान थी। उसके देह पर पड़ी साड़ी पुरानी और मैली होने के कारण उसके रंग का अंदाजा लगाना मुश्किल था। लोकगीत और पहनावे से लग रहा था, काले रंग की मरियल सी यह औरत कुणबी जाति की है । उसकी साड़ी एक ओर सरक गई थी, जिससे बायां स्तन बाहर की ओर निकल आया था। उम्र का अंदाज़ा लगाएं तो यही कोई सत्तर-पचहत्तर की होगी।
पहली बार उस औरत को मैंने कल सुबह आते समय देखा था। उस वक्त रास्ते में राहगीर बहुत कम थे। मंदिर को जाता एकाध व्यक्ति, दूध, अखबार पहुंचाने के लिए जाते लड़के और पाठशाला के लिए निकले बच्चे। पर हर कोई अपने -अपने काम में व्यस्त था। यह औरत दुकान के आगे बैठकर कुछ गुनगुना रही थी। कुछ अस्पष्ट सा सुनाई दे रहा था। उसकी भाव भंगिमा के कारण मेरी नजर उसकी ओर गई। उसने अपने दोनों हाथ आगे की तरफ किए थे। ऐसा लगा, उसके हाथ में कुछ है। यह देखकर इतना तो मैं समझ गया कि यह भीख नहीं मांग रही है। मैंने देखना चाहा उसके हाथ में क्या है ? क्या पर कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मैंने सोचा हाथ हिलाकर अदृश्य आंचल से अपने आपको हवा कर रही हैं। पर ऐसा नहीं था। शायद वो हाथ में अदृश्य सूप लेकर चावल फटक रही है...। उसके इस तरह के व्यवहार से मैंने समझ लिया वो पागल हैं।
पहले भी मानसिक संतुलन खोए हुए मर्द, औरतें, जवान और बूढ़े गांव में दिखाई देते थे। उनके सामने से गुजरते समय भय, उत्सुकता और थोड़ी शरारत के भाव मन में उत्पन्न होते थे। और कल जब मैंने इस पागल कुणबिण को अदृश्य सूप हाथ में लेकर चावल फटकते देखा तो मेरे मन में भी ठीक यही भाव आ गए थे...।
सुबह समय पर भटजी आ गए। उसके मंत्रोच्चार और विधि-विधान के बीच मुझे बार-बार पिता की याद आ रही थी। पिता भी गोकुलाष्टमी और दशहरे के समय इसी तरह मंत्रोच्चार के साथ पूजा करते थे। मेरी आंखों के सामने उनका मंद मुस्काता चेहरा आ गया। उनकी बातें कानों में गूंजने लगीं। पहली बार पिता उसकी उंगली पकड़कर उसे समंदर किनारे लेकर गये थे। एक बार जब उन्होंने बताया था कि सबकी फोटो खींचने के लिए फोटोग्राफर आएगा, तब हम सब कितने उत्साहित हुए थे। यह सब बातें स्मृति पटल पर दस्तक दे रही थीं...।
पिता ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे। आठवीं तक ही पढा़ई की थी। पर ईमानदारी और परिश्रम के बलबूते पर एक कंपनी के भागीदार बन गए थे। हम सबको उन्होंने पढ़ाया। हमें उनपर गर्व है। कॉलेज में मेरा दाखिला करने के लिए एक बार वो मेरे साथ आये थे। तब प्रिंसिपल के सामने बड़े आदर तथा अपना रुतबा संभालते हुए जिस तरह वे कुर्सी पर बैठे थे, यह देखकर आश्चर्य हुआ था मुझे। आज उनके श्राद्ध के दिन ये सारी बातें दिल के जरिए दिमाग में घूम रही थीं। जब भटजी ने मुझे पिंडदान करने के लिए कहा, उस समय भी मेरी आंखों के सामने पिता का हंसता चेहरा था। मैं सारी विधियां मन से निभा रहा था।
पिंडदान के उपरांत भटजी ने मुझे केले के पत्तल में कौओं के लिए खाना रखकर आने को कहा। मैंने आंगन के कोने में पत्तल रखा और कौओं को कांव-कांव करके बुलाने लगा। कुछ देर बाद कुछ कौए आ गए। यह देख मैं भीतर आ गया। अब पिंड और अन्य चीजों को गीले गमछे में बांधकर मंदिर के तालाब में विसर्जन करने के लिए निकालकर रख दिया। जब भटजी को नाश्ता देने के लिए मैंने माँ को आवाज लगाई तो देखा मांँ की आंखें लाल हो गई थीं।
शायद पिता की याद में आंसू बहाए होंगे। मैंने मां से कहा,
"भटजी को नाश्ता दे दो।"
फिर भटजी से कहा, "मैं तालाब में पिड़ विसर्जित करके आता हूँ। तबतक आप नाश्ता कीजिये।
आठ बज चुके थे। बाहर श्रावण मास की सुनहरी धूप निकली थी और आसमान में नीला रंग पसरा था। रास्ते पर इधर-उधर के गड्ढों में कल रात के बारिश का पानी इकट्ठा हुआ था। फूल और अखबार वालों की दुकानें खुल गई थीं। कपड़े, किराने की दुकानों के खुलने का समय नहीं हुआ था। स्कूल जाते बच्चों के ऑटो रिक्शा की आवाजाही शुरू हो गई थी। अचानक, मेरे पीछे एक ऑटो आकर रुक गया। पीछे मुड़कर देखा तो दीनू का ऑटो था।
उसने पूछा, "कब आया रे?"
"कल, कैसे हो तुम?"
"भगवान की दया से अच्छा हूं। लगता है आज तेरे पिता का श्राद्ध हैं।"
" हां ।"
"पिंड तालाब में बहाने जा रहा है क्या? आ ऑटो में बैठ। मैं तुम्हें छोड़ देता हूं। "
और वह मुझे बैठाने के लिए बच्चों से थोड़ी जगह बनाने के लिए कहने लगा। ऑटो के भीतर करीब आठ नौ बच्चे थे।
" मंदिर तो पास में ही है। मैं चला जाऊंगा। तू जा बच्चों को पाठशाला पहुंचने में देर होगी ।"
" ठीक है तू रहेगा ना कुछ दिन गांव में ?"
"कल जा रहा हूं जाने के पहले मिलते हैं ।"
" ओके"
ऑटो कुछ दूर ही गया था। तभी मैंने फिर से दीनू को आवाज लगायी। ऑटो रुक गया। मैं दौड़ते कदमों से उसके पास पहुंचा।" दीनू कल रात को मेरी पौने आठ बजे की गाड़ी है। तू मुझे स्टेशन पहुंचाने के लिए आ जाना ।"
"यहांँ से पौने सात बजे निकलेंगे तो चलेगा ना ?"
"हां चलेगा। "
"अब पहले जैसा नहीं रहा। अब नया पुल बना है ना। इसलिए गाड़ियां ब्लॉक नहीं होती हैं और स्टेशन तो चौदह किलोमीटर पर हैं।"
"ठीक है।"
ऑटो चला गया। पाँच मिनट में मैं तालाब के पास पहुंचा गया।
पहले इस तालाब पर लोग आकर स्नान करते थे। गांँव के सभी बच्चों ने इसी तालाब में तैरना सीखा था। एक- दो बच्चे तो इसमें डूब कर मर भी गए थे। एक औरत ने इसी तालाब में अपनी जान दी थी। अब तो तालाब चारों और से पत्थरों से बांध दिया गया है और गेट भी लग गया है। दोपहर को तालाब बंद कर दिया जाता है। पहरेदार भी लगा रखा है।
इस समय गेट खुला था। मैं अंदर गया और थैली में से पिंड का सारा सामान निकालकर तालाब में बहा दिया। गमछा धोकर निचोड़ लिया और कंधे पर डाल लिया।
लौटते हुए लगा मंदिर के भीतर जाकर भगवान के दर्शन करके आना चाहिए। मंदिर और इसके विशाल प्रांगण के साथ मेरी बचपन की कितनी ही यादें जुड़ी हैं। हम यहाँ खेलते थे। शायद आज भी पाठशाला से आने के बाद बच्चे खेलते होंगे। मंदिर की प्रदक्षिणा करने में हमें कम से कम पंद्रह मिनट लगते थे। इतना भव्य हैं यह मंदिर। पर आज मंदिर के प्रांगण में कदम रखते हुए मैंने महसूस किया कि मेरी उम्र के साथ यह प्रांगण मुझे छोटा लगने लगा है। शायद जैसे- जैसे हमारे पैरों की लंबाई बढ़ती हैं, हमें धरती की लंबाई कम होती दिखाई देती होगी।
सुबह की पूजा संपन्न हो चुकी थी। इस समय मंदिर में कोई नहीं था। मैंने भगवान को नमस्कार किया और प्रसाद लेकर बाहर आ गया। रास्ते पर वाहनों की संख्या बढ़ गई थी। ऑफिस , पाठशाला जाने वाले तेज गति से अपने-अपने वाहनों को दौड़ा रहे थे फिर से चौराहें पर वो कुणबिन औरत दिखाई दी। वह रास्ते के बीच में बैठकर जमीन को कुरेद रही थी। श्रावणमास की सुनहरी धूप उसके झुर्रियों भरे काले बदन को नहला रही थी। उसके बालों की सफेदी चांदी की तरह चमक रही थी। कल की बारिश में धुली हुई सड़कों पर वह अपनी उंगलियों से कुछ ढूंढ रही थी।
क्षणभर के लिए मुझे लगा वह अदृश्य सूप हाथ में लेकर चावल में से कंकड़ बीन रही है। पर उसकी उंगलियों के चलन से ऐसा नहीं लग रहा था कि वह चावल में से कंकड़ बीन रही है। पर कुछ तो ढूंढ रही थी वो...।
तेज गति से आने वाली गाड़ियों के चालक उसे देख अपनी गाड़ी की गति धीमी कर लेते। ऑटो ड्राइवर उसे सड़क के बीच से उठकर बाजू में बैठने के लिए कहते थे।
' ए बुढ़िया सड़क के बीचो बीच क्यों बैठी है? अगर गलती से भी किसी वाहन से टकरा गई तो तेरी हड्डियों का चूरा हो जाएगा। '
इस बात का कोई असर नहीं हुआ उसपर। वह वहीं बैठी रही। बाद में एक बुजुर्ग दुकानदार वहाँ आया। उसकी ही उम्र का होगा लगभग। उसके पास जाकर उसने कहा "तुलसी यहां से उठ और बाजू में जाकर बैठ।" वह फिर भी तटस्थ बैठी रही।
उसके चेहरे पर एक किस्म की गंभीरता थी। मुझे लगा वह रो रही है। पर उसकी आंखों में एक भी आंसू नहीं नजर आये। मुख पर करुणा और ममत्व का भाव था और किसी की स्मृतियों की छाप तैर रही थी।
बुजुर्ग ने हाथ पकड़कर उसे खड़ा किया और रास्तें के किनारे ले जाकर बिठा दिया। वह कुछ बड़बड़ा रही थी। पर क्या ? सुनाई नहीं दिया। वह वहां से उठकर चलने लगी। उसकी चाल में किसी नृत्य की ताल समाई थी। पर बढ़ी उम्र के कारण उसके कदमों की गति साथ नहीं दे पा रही थी। वह लंगड़ाते हुए चल रही थी
वह मेरे पास से गुजर रही थी। मेरे मन में ख्याल आया, तुलसी क्या सोचती है? उसके दिमाग में क्या चलता है? कोई लोकगीत? सिनेमा का कोई गाना या फिर अर्थों के बंधन से मुक्त हुए शब्दों का कोलाहल?
मैं घर पहुंचा तो भटजी नाश्ता करके अखबार पढ़ रहे थे। बाद में वे कुछ देर तक अखबारों की खबरों पर चर्चा और गांव के विकास की बातें करते रहे। कभी पाठशाला को अपग्रेड करने की बात तो कभी मंदिर के प्रांगण में खाली जमीन पर कॉलेज के निर्माण की चिंता। गांव में कोई कारखाना खुल जाता है तो नौजवानों को नौकरी मिल सकती है । वे कह रहे थे, "गाँव वाले सुधार के इन कामों में कोई रुचि नहीं दिखाते हैं। मंदिर में एक एमबीए की डिग्री वाला मैनेजर रखा गया है। उसने तो मंदिर में रखी सारी पुरानी चीजों को बेकार की चीजें कहकर नीलामी में डालने की कोशिश की।"
बहुत पहले किसी का दान में दिया हुआ पुरानी वास्तुशिल्प का एक भवन है। अब सुनने में आ रहा है कि उसे तोड़कर शादी का मंडप बनाने की योजनाएं शुरू है.....इन दिनों कौन क्या कर रहा है कुछ समझ नहीं आता है। सब कुछ हाथ से बाहर होता जा रहा है।
भटजी चले गए। मैंने पूरा दिन भाई-बहनों से बातें करते और उनके बच्चों के साथ खेलते टीवी देखते बिताया।
अगले दिन नाश्ता करके बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। मैंने माँ से कहा, "मैं बाहर जाकर आता हूँ। खाने पर मेरा इंतजार मत करना। दोस्तों से मिले कई साल हो गये। शाम चार बजे तक लौट आऊंगा। पौने सात बजे दीनू आयेगा स्टेशन पहुंचाने के लिए।
" ठीक है। पर जल्दी आना तब तक मिठाई, लाडू सब बांधकर रख दूंगी। आज धूप निकली तो रोहिणी को कहकर पापड़ बनवा दूंगी।
" मैं कहना चाहता था कि ये सब चीजें वहां भी मिलती हैं। पर वो मेरी बातें अनसुनी करके बांध ही देगी। मैंने कुछ नहीं कहा और निकल गया।
शाम को जब मैं बैग में सामान भर रहा था मां पूछने लगी,
"अब फिर कब आएगा ? "
"देखता हूं । "
"मार्गशीर्ष महीने में मंदिर का मेला है। याद है ना "
" हां ! आऊंगा "
" बच्चों और सौम्या को भी लेता आना। "
" ठीक है । "
पौने सात बजे दीनू गेट के पास आकर होर्न बजाने लगा। माँ से विदा लेकर मैं ऑटो में बैठ गया। चौराहे के पास पहुंचते ही अचानक दीनू ने ऑटो की गति धीमी कर दी। आगे तुलसी खडी़ थी। ऐसा लग रहा था वो अपने हाथों से किसी अदृश्य झूले को झुला रही है।
"हे भगवान इस औरत ने तो परेशान करके रख दिया है। ए तुलसी थोड़ा बाजू हट जा।"
पर वो झूला झुलाती रही। दीनू ने ऑटो का इंजन बंद कर दिया। वह तुलसी के पास गया और उसका हाथ पकड़ कर उसे बाजू में ले जाकर खड़ा कर दिया। दीनू ने उसे हंसते हुए कहा, "अब तुम्हें जो करना है करो पर बीच सड़क पर खड़ी होकर रास्ता मत रोको।"
मैंने दीनू से पूछा " ये औरत इसी इलाके की है क्या ?"
" हां तूने नहीं पहचाना उसे ? "
मैं उसे नहीं पहचानता था। फिर दीनू ने बताया, उसका छोटा बेटा जब अय्यप्पा के दर्शन करने के लिए शबरी मलै जाने की तैयारी कर रहा था, तब चाकू से किसी ने उसकी हत्या कर दी।
"अरे तब हम दसवीं कक्षा में थे ना। तुम्हें याद नहीं ?"
फिर मेरे जहन में आया। पंद्रह साल पहले, पौष महीने में, शाम सात बजे के आसपास एक औरत घर के सामने से चीखती हुई भागी थी ! बाद में किसी से पता चला कुणबी बस्ती के नन्ना को किसी ने चाकू से मार दिया और वो रास्ते पर तड़पता रहा। सब दुकानदार दुकानें बंद करके भाग गए। उसके बाद तुरंत कर्फ्यू लगा दिया गया।
उसने शबरी मलै जाने के लिए चालीस दिन का व्रत रखा था। गले में माला और बदन पर काला वस्त्र पहनता था। उन दिनों अयोध्या में टूटी मस्जिद की तस्वीरें बार-बार दिखाई देती थी।
मेरे मन मस्तिष्क पर बिजली सी कौधं गई।
तुलसी सड़क पर पड़े चावलों में से कंकड़ नहीं बीन रही थी। बल्कि नौ महीने पेट में रखकर जन्म दिए अपने बच्चें को लाड़ कर रही थी। दुकान के बरामदें में चावल का सूप लेकर नहीं बैठती थी बल्कि अपने बच्चें को हाथ में लेकर खेलती थी। उसे छाती से चिपकाकर कोई लोकगीत नहीं बल्कि लोरियां गाती थी वो...।
मेरे जहन में अब अयोध्या ,गोधरा ,मालेगांव, हैदराबाद ऐसे कई नाम आ गए थे। लगा इन सभी नामों के साथ तुलसी का भी नाम लेना चाहिए।
मंदिर में से एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी का "पावयामी रघुरामन.. भजन हवा के संग चारों और गूंज रहा था और ईशान दिशा में कहीं से मस्जिद के भीतर से प्रार्थना की आवाजें आ रही थी। जैसे-जैसे ऑटो आगे बढ़ रहा था वैसे -वैसे सुब्बुलक्ष्मी का स्वर और मस्जिद में से आती प्रार्थना की ध्वनियां दूर होती जा रही थीं...।
अनुवाद -सरिता सैल
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