अक्सर मन में ख्याल आता है
मृत्यु के बाद मैं कहां बची रहूंगी
सबसे अधिक
उन हथेलियां पर
जहाँ देती रही मैं दान जरूरतमंदों को
समय असमय पर
और कहती रहती थी बड़ी मां
दिन के बारह बजे के बाद
नहीं दिया जाता है दान
पर प्रतिउत्तर न देकर
मैंने दिया अन्न तो कभी धन
क्योंकि समय की मांग थी
घड़ी के भीतर का समय
और बाहर का समय कभी
एक जैसा नहीं लगा मुझे
क्या उन हथेलियां पर मैं बची रहूंगी ?
या मैं मरने के बाद
सबसे अधिक बची रहूंगी
उस मिट्टी में जिसने
चखा है स्वाद मेरे गर्भनाल का
और मेरे मरने तक वो मिट्टी
करती रही इंतजार मेरे लौटने का
क्या मेरी मृत्यु के बाद
मुझे बचने दिया जाएगा
उस मिट्टी में सबसे अधिक ?
या मृत्यु के बाद मैं बची रहूंगी
उस पुरुष के हृदय में
ठीक उसी चिट्ठी की तरह
जो डाक के बक्से में डाली तो गई
पर हर डाकियें के हाथ से
प्रत्येक बार छूटती रही
और अंधेरे तहखाना में
सालों पड़ी रही जर्जर होने के
पश्चात भी बची रही
उस डाक के बक्से में
क्या मृत्यु के पश्चात
मैं बची रहूंगी सबसे अधिक
उस पुरुष के ह्रदय में ?
ठहर कर सोचती हूं
जब जब क्या मरने के पश्चात
हम बच सकते हैं कहींपर ?
वह भी ऐसे समय में जब
जीवित अवस्था में ही मनुष्य
किसी के वर्तमान में
नहीं बच रहा है दिन ब दिन
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