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सुनो



मंदिरों में सजाया गया मुझे 
पर क्या घर आंगन में 
उतनी ही सहजता से 
क्या स्वीकारा गया है  मुझे
 गर्भ से लेकर श्मशान तक 
कितनी कठिनाइयों को झेला 
पर इस रोष में कभी 
संसद पर ताला चढ़ाया है तूने ?

 देवालयों के गर्भगृह में 
सदा कीमती परिधानों से ढकी रही
पर धूल ,मिट्टी कूड़े  के बीच 
अपनी संतति की भूख बिनती 
कात्यायनी के फटे
वस्त्रों को  कभी  निहारा है तूने ?

नहीं ना 
तो सुनो 
मैंने उन तमाम दहलीज को लांघा हैं
जहां मैं मूर्तियों में रची बसी गयी
अब मैं रहती हूं उस अस्मिता के पीठ पर
छांव बन जहां झुलसती है रोटी 
उन बिस्तरों के सिलवटों  पर 
जहां औरत देह समझ नोची जाती है 
मैं बसती हूं उस कपाल के मध्य 
जहां बिंदी नहीं पसीना थकान बन बहता है

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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।