आज भी वो पीठ करके सोती हैं
उस ओर जो आज खाली हैं
सिलवटें अब नहीं पडती हैं बिस्तरों पर
तमाम सिलवटें धीरे-धीर
उतरने लगी है उसके चहरे पर
वो कभी नहीं देख सका उसे
मन की आंखों से यदा-कदा
जब वो हाथ बढ़ाता उसकी ओर
उसकी देह ही मुख़र होकर बोलती
पर उस रात की सुबह में एक फर्क होता
रसोईघर की टेबल पर देह का श्रम रखा मिलता
सप्तपदी के उन्हं पाक वचनों में
अग्नि की उस आँच में
सिंदूर की रक्तिम रंग में
उसकी होकर भी बार-बार
वो उसे खरीदते रहा
और वो बिना खुद को बेचे
नीलाम होती रही अपने ही आँगन में
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