माँ
उनकी स्मृतियों को नमन
घर के दालान को खाली कर
पांव फटते अंधयारे में
पहली रेलगाड़ी से
गाँव से लेकर आया था तुम्हे माँ
तुम्हारी कमजोर आँखों ने
कितना भर देखा होगा
उस सुबह अंतिम बार
अपने घर को माँ
तुम्हारे जाने से कुछ नहीं बदलेगा
केवल इतना भर होगा
अब कभी मैं इस भीड़ से भरे शहर में
स्टेशन से उतरकर
मेरे पिछे चलने वाली माँ को
अपने घर की तरफ लेकर
नही जा पावुगा कभी
मोबाइल में सुरक्षित रखी
तुम्हारी दवाईयों की पर्ची
गेलरी में मौजूद रहेगी माँ
तुम्हारे कारण ही बहुत से रिश्ते
अब तक टुटने से बचे थे
अब बिना किसी अनबन के
सदा के लिए खामोश हो जायेगे माँ
तुम जबतक थी माँ
मेरे महानगर के घर में भी
एक गाँव किस्से कहानियों के साथ
आबाद था माँ
अब घर के दालान का इंतजार
और वापसी में मेरे खाली हाथ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (18-05-2023) को "काहे का अभिमान करें" (चर्चा-अंक 4663) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण प्रस्तुति
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