समंदर ने पानी उधार लिया है 
नदियों से 
जैसे उधार लेते हैं 
कुछ एक पिता बेटियों से 
उनकी संपत्ति 
और अधिकार के साथ चलाते हैं 
पितृसत्ता का साम्राज्य 
नदियाँ विलुप्त हो रही हैं 
समंदर को भविष्य की बंजरता  का 
आभास फिर भी नहीं हो रहा है
काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र
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