अक्सर मेरी शामें सन्नाटा बुनती हैं
घोसलें की तरफ लौटते परिंदों को देख
सोचती हूं लौटने के लिए घर होना
कितना सुखदाई होता है ना
और मेरे भीतर का भटकाव
उमस ओढ़े दहलीज पर टिक जाता है
लौटने को मैं भी लौटती हूं हर रोज
उघता दरवाजा इंतजार में होता है
अकेलेपन से बेजार आई दीवारें
आईने पर लगे बिंदी के निशान
मेरे देह पर लगे जख्मों के निशान
की तरह आज भी मौजूद हैं
मेरा लौटना हमेशा से मेरे भीतर ही रहा
लौटते हूं बाहर के कोलाहल से अपने भीतर
और मेरे लौटने से मेरा घर लौट आता है मेरे भीतर
अक्सर मेरी शामें सन्नाटा बुनती है
रात के पोखर से
एक बुंद ओस की
सुरज के अधरों पर
धिरे से रख आती है
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