शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा “ आप कहां जा रही हैं ?’’ “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।
वाह के साथ आह 👌👌👌
जवाब देंहटाएंनदी का दर्द मर्मान्तक लगा ।।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०८-०८ -२०२२ ) को 'इतना सितम अच्छा नहीं अपने सरूर पे'( चर्चा अंक -४५१५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अतिसुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंवाह्ह.. सराहनीय भाव।
जवाब देंहटाएंसादर।
वाह अनुपम सृजन
जवाब देंहटाएंऔर नदी तलहटी में
जवाब देंहटाएंखामोशी से समाती रही
पर्दे के पीछे का दृश्य
जितना पीड़ादायक होता है
उतना ही ओझल
संसार की नज़रों से
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति।
नारी और नदिया की पीड़ा एक सी।सागर सरीखे प्रेमी कभी नहीं बदलते।संसार की दृष्टि से ओझल रहा है सब कुछ।सदियों से!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंजितना पीड़ादायक होता है
जवाब देंहटाएंउतना ही ओझल
संसार की नज़रों से
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति।
कितनी मार्मिक और सच्ची कविता । नदी का संघर्ष किसे दिखता है !
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