मेरा एकांत
मेरे कमरे में छाये
सन्नाटे का हिसाब
जब लगाता हैं
तब एक इतिहास
अपने पन्ने खोलकर
मेरे समक्ष आ जाता हैं
पर मेरी जिद होती हैं
वर्तमान के लोहे सम
कवच से मैं ढ़क दूँ
उसके पन्ने
और घास पर बैठी
ओस की बूँदे भर लाऊँ
अपनी अँजुरी में ,
और सींच दूँ फिर से
एक और नींव भविष्य की
तभी उस कमरे के
सन्नाटे को चीर जाती हैं
दीवार पर लगी घड़ी
संकेत देती हैं
प्रहर के गुजर जाने का।
बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ,भाव बहुत सुंदर है
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर।