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प्रहर

मेरा एकांत 
मेरे कमरे में छाये
सन्नाटे का हिसाब 
जब लगाता हैं 

तब एक इतिहास 
अपने पन्ने खोलकर 
मेरे समक्ष आ जाता हैं 

पर मेरी जिद होती हैं 
वर्तमान के लोहे सम 
कवच से मैं ढ़क दूँ
उसके पन्ने

और घास पर बैठी
ओस की बूँदे भर लाऊँ
अपनी अँजुरी में ,

और सींच दूँ फिर से 
एक और नींव भविष्य की 

तभी उस कमरे के 
सन्नाटे को चीर जाती हैं 
दीवार पर लगी घड़ी 
 संकेत देती हैं 
प्रहर के गुजर जाने का।

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