सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मुक्कमल कविता

भूख पर कविता लिखना 
मुझे बेईमानी सा लगा हमेशा 
नहीं देखा भूखे को कलम पकड़े 
मेरे भोजन की फेहरिस्त
मस्तिष्क में सदा रही मौजूद
इसलिए मेरी अंतड़ियां 
परिभाषित नहीं कर सकी भूख

या फिर भूख ने कभी 
बचपन में  नहीं फैलाया 
मेरी आंखों में अपना साम्राज्य 
न ही उसके हिस्से आया
मेरा एक भी आंसू 
ना ही मेरी जवानी पर कभी
कुपोषण का रोग मंडराया 

और आज जब मैं 
भूख पर कविता लिखने बैठा 
लगातार मेरे हाथ से
कागजों की हत्या हो रही थी 

अगले दिन सुबह की सैर पर 
मैंने पाया सड़क किनारे 
अधमरा सा एक आदमी 
शून्य नजरों से ताक रहा था
चाय नाश्ते का ढाबा

उसके सामने कुछ निवाले रखे
वापसी में मेरे साथ
चल रही थी एक मुकम्मल कविता
उसको रखा मैंने हमेशा से
कागज़ और मंचन से खूब दूर
उस कविता की अलग एक भाषा बना दी
जिसमें केवल एक ही शब्द था रोटी 
और उसके पाठक वही थे
जो सड़क किनारे अधमरे बैठे थे






टिप्पणियाँ

  1. उफ, दर्द की पराकाष्ठा उतर आई कागज पर 👍

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 10 जनवरी 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. उस कविता की अलग एक भाषा बना दी
    जिसमें केवल एक ही शब्द था रोटी
    और उसके पाठक वही थे
    जो सड़क किनारे अधमरे बैठे थे
    ..जीवन में भूख, गरीबी का मार्मिक चित्रण ।सराहनीय और चिंतनपूर्ण रचना ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना