मैंने देखे हैं
अपने गाँव में चुनाव के कई उत्सव
कभी लोकसभा के तो कभी विधान सभा के
तो कभी पंचायत के
कहाँ होता था कोई फर्क
जनता के लिये
याद है मुझे
मनभाता था
गाड़ियों का
गाँव की कच्ची सड़कों पर
धूल उड़ाना,
बच्चो का गाड़ियों के पीछे भागना
गाड़ी के पहियों के निशान का पीछा करना ।
और आज याद आ रहा है
उन गाड़ियों का मुड़कर नहीं लौटना
स्रियां खोलती थी अपनी संदूक
निकालती थी मँहगी साड़ियां
जो नहीं पहनी वे कई सालों से
पांच-साल उत्सव पर पहनती थी वे
सालों से तह रखी साड़ियां
संविधान के पन्नों की गंध आती थी
इन साड़ियाें से
अब भी ताजी है
संदूक के पल्लों की चे-चे और
सीलन की गंध
खेत खलिहान में
रुक जाते थे हाथ
बैलों के गले की घंटियां
लौट आती थी सुबह सवेरे ही
सैकड़ो कदम उठ पड़ते थे
मतदान केंद्र की तरफ
कंधे पर डाले नई धुली कमीज
अधिकार के प्रदर्शन के लिये ।
किन्तु कोरे रह गये
चुनाव में किये गए वादे
किसान के कंधे पर रख
कमीज की भांति
जिसे उसने कभी इस्तेमाल ही नहीं किया
समय बदला
अधिकार के मायने बदले
जाति-धर्म ने लिया
संविधान का स्थान
भोली जनता फिर
गाड़ियों में भर-भरकर
लिवा जाने लगी
उन्हीं बड़ी -बड़ी गाड़ियों में
धूल उड़ाती
फिर आते वक्त वही धूल
वापिस उड़ जाती थी
जनता की आँखों में
मेरे गांव की जनता
एक वोट को अधिकार
समझती
वह अधिकार जो
जनता का मानो
प्रमाण-पत्र हो सरकार को
अपने अंगूठे पर लगी
काली स्याही को वे
निहारते गर्व से
उन्हें अपनी गिनती का
होता आभास बस एक दिन
भोली जनता को
क्या पता ये तो
अंधेरा थमा दिया है
हाथों में उनके
काश कोई सरकार
चुनाव की स्याही से भरती कलम
देती शिक्षा भगाती अँधेरा
धूल उड़ाती चुनावी गाड़ियां
लौटती लेकर
रोजगार और स्वावलंबन
सामयिक चिंतानात्मक रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंबहुत सुंदर और सार्थक रचना है वर्तमान परिवेश में
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
हटाएंप्रासंगिक कविता।
जवाब देंहटाएंचुनाव पर लिखी बहुत अच्छी और प्रभावी कविता
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
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