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क्षणिकाएं

1


मैं उम्र के उस पड़ाव पर

तुमसे भेंट करना चाहती हूं

जब देह छोड़ चुकी होगी

देह के साथ खुलकर

तृप्त होने की इच्छा

और हम दोनों के

ह्रदय में केवल बची होगी

निस्वार्थ प्रेम की भावना

क्या ऐसी भेंट का 

इंतजार तुम भी करोगे



2


पत्तियों पर कुछ कविताएं 

लिख कर सूर्य के हाथों 

लोकार्पण कर आयी हूं 

अब दुःख नहीं है मुझे 

अपने शब्दों को 

पाती का रुप  न देने का 

ना ही भय है मुझे 

अब मेरी किताब के नीचे 

एक वृक्ष के दब कर मरने का



3


आंगन की तुलसी पूरा दिन

तुम्हारी प्रतिक्षा में कांट देती है

पर तुम्ह कभी उसके लिए नहीं लौटे


4


कितना कुछ लिखा मैंने

संघर्ष की कलम से

समाज की पीठ पर

कागज की देह पर उकेरकर

किताबों की बाहों में 

उन पलों को मैं

समर्पित कर सकूं

इतने भी 

सकुन के क्षण 

जिये नहीं मैंने


5


मेरी नींद ने करवट पर

सपनों में दखलअंदाजी 

करने का इल्जाम लगाया है





टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०४-१२ -२०२१) को
    'हताश मन की व्यथा'(चर्चा अंक-४२६८)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. कितना कुछ लिखा मैंने
    संघर्ष की कलम से
    समाज की पीठ पर
    कागज की देह पर उकेरकर
    किताबों की बाहों में
    उन पलों को मैं
    समर्पित कर सकूं
    इतने भी
    सकुन के क्षण
    जिये नहीं मैंने
    वाह!!!
    बहुत ही उम्दा सृजन..

    जवाब देंहटाएं
  3. ताज़ी हवा का झोंका सा
    थपथपा कर पीठ आगे बढ़ गया ।
    बालों में उलझा कर रंग-बिरंगे फूल !

    रचना मनभाई !
    खूब बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  4. कभी फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पधारें
    शब्दों की मुस्कुराहट
    https://sanjaybhaskar.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  5. सभी क्षणिकाएँ बहुत सुन्दर हैं। पहली और चौथी रचनाएँ अप्रतिम!

    जवाब देंहटाएं

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रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

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घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना