१) सिहासनों पर नहीं पड़ती हैं कभी कोई सिलवटें जबकि झोपड़ियों के भीतर जन्म लेती हैं बेहिसाब चिंता की रेखाएं सड़कों पर चलते माथे की लकीरों ने क्या कभी की होगी कोशिश होगी सिलवटों के न उभरने के गणित को बिगाड़ने की। २) सत्ता का ताज भले ही सर बदलता रहा राजाओं का फरेबी मन कभी न बदला चाहे वो सत्ता का गीत बजा रहा या फिर बिन सत्ता पी रहा हाला ३) जिस कटोरे में हम अश्रु बहाते हैं उसी कटोरे को लेकर हर बार हमारे अंगूठे का अधिकार मांगते हैं आजादी से लेकर अब तक जो भी सत्ता की कुर्सी पर झूला है हमारे सांसों के साथ वो मनमर्जी से हर बार खेला है सरिता सैल
बहुत सुंदर और सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंबधाई
सुंदर सृजन
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