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जनता और सत्ता

१)

सिहासनों पर नहीं पड़ती हैं
कभी कोई सिलवटें 
जबकि झोपड़ियों के भीतर
जन्म लेती हैं बेहिसाब
  चिंता की रेखाएं 
सड़कों पर चलते 
माथे की लकीरों ने 
क्या कभी की होगी कोशिश होगी 
सिलवटों के न उभरने के गणित को 
बिगाड़ने की। 

२)

सत्ता का ताज भले ही सर बदलता रहा
राजाओं का फरेबी मन कभी न बदला
चाहे वो सत्ता का गीत बजा रहा 
या फिर बिन सत्ता पी रहा हाला

३)

जिस कटोरे में हम अश्रु बहाते हैं 
उसी कटोरे को लेकर हर बार
हमारे अंगूठे का अधिकार मांगते हैं
आजादी से लेकर अब तक 
जो भी सत्ता की कुर्सी पर झूला है
हमारे सांसों के साथ 
वो मनमर्जी से हर बार खेला है

सरिता सैल

टिप्पणियाँ

  1. सत्ता का ताज भले ही सर बदलता रहा
    राजाओं का फरेबी मन कभी न बदला
    चाहे वो सत्ता का गीत बजा रहा
    या फिर बिन सत्ता पी रहा हाला
    बहुत ही सटीक...
    लाजवाब सृजन।

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  2. वाह बहुत गहरी पंक्तियां...कम शब्दों में काफी कुछ कह दिया है आपने।

    जवाब देंहटाएं
  3. बिलकुल सही विश्लेषण । बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बेहतरीन कविताएं।लाजबाब अभिव्यक्ति👌💐

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बेहतरीन कविताएं।लाजबाब अभिव्यक्ति👌💐

    जवाब देंहटाएं
  6. ये छोटी कविताएँ नहीं
    दुर्दिन समय की सच्चाई को पड़ताल है

    बहुत गहरे तक झझकोरती हैं
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
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  8. सूत्र रूप में समय का सत्य साने रख दिया है !

    जवाब देंहटाएं
  9. सत्ता का ताज भले ही सर बदलता रहा
    राजाओं का फरेबी मन कभी न बदला
    चाहे वो सत्ता का गीत बजा रहा
    या फिर बिन सत्ता पी रहा हाला
    बिल्कुल सही कहा आपने सत्य चाहे जिसकी हो पर मकसद सभी का एक है! किसको कहे अच्छा और किसको कहे बुरा सारे एक ही घाट के पानी है इनसे कोई उम्मीद ही नहीं रहेगी! कोई किनारे पर लाकर दूं होता है कोई मझधार में पर डुबो दी सभी हैं! अंधों में काना राजा चुनना हमारी मजबूरी हो गई है! हकीकत को बयां करती हुई बहुत ही सटीक और शानदार रचना

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