नदी तू सींचती है
सदा ही सभी को अपने मीठे जल से
जबकि तुम्हारे हिस्से में
आता रहा है हमेशा से
बड़े बड़े पत्थरों ने दिये
नुकीले असहनीय दर्द
तू बड़ी माहिर है छुपाने में
रक्तरंजित बदन को
जिन्हे तुम छिपा लेती हो
बड़ी ही खूबसूरती से
भूलकर रक्तरंजित बदन की पीड़ा
सौंप देती हो खुद को
संमदर के मजबूत बाहुपाश में
और खो जाती हो
चुपचाप संमदर के खारे सीने में
और युगों के बाद समंदर का नमक
जब कुरेदता है
बार -बार तुम्हारे जख्मों को
और उसमें भर देता है तुम्हारी
मरणसन्न पीड़ा को
फिर भी शान्त रह सहती हो
बगैर कुछ कहे हुए
परन्तु हे नदी तुझसे पूंछ्ती हूँ
नदी सी आखिर तुम्हारे अवदान का
तुम्हे आज तक क्या प्रतिफल मिल सका है
जो आज भी तुम
हृदय की गहनता में छुपाये हुए
बिना रूके बहती चली जा रही हो
निर्लिप्त भाव से
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
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