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विरह

डुबोकर रक्त में तिनके 
मै तुम्हारा विरह लिखती हूँ 

जिन राहों पर साथ चलते
चुभे थे पैरों में 
कभी अपमान के कांटे
तुम्हारे तिरस्कार के 
तलवों में पड़े छालों से 
पत्थरों पर उगे निशान
मैं लिखती हूँ 

रास्ते में पड़ते मंदिरों की चौखट में 
बुदबुदाया करती थी मैं 
तुम्हारे मुश्किलों की गांठें 
उन कामयाबियों के 
मन्नतों के धागे मैं लिखती हूँ 

गोधूलि में लौटते 
 पक्षियों की थकान 
जानवरों के पैरों में 
लगे भूख के निशान 
मेरे वापसी के सफर में 
यातनाओं की वो गठरी 
आँखों के किनारे पर 
अपना साम्राज्य फैलाता 
वह संमदर 
और कुछ इस तरह से 
तुम्हारी बेवफाई की पीठ पर 
मै आज भी वफा लिखती हूँ

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 26 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत ख़ूब ... विरह को लिखना मन को लिखने के बराबर ही है ...

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