इतवार
अपने रथ के पहियों में
वायुतंरगो के कण पिरोकर
रफ़्तार के सिंहासन पर बैठ
तेज़ भागते महानगरों की
गती धीमी करने का साहस
अपने पास रखता है इतवार
एक ऐसा ही इतवार
उग आया था मेरी खिड़की में
कई दिनों बाद देखा था मैंने
दूधवाले का चेहरा उजाले में
अन्य दिनों की तरह ही यन्त्रवत
सड़क आज भी दिख रही थी
पूर्व की भांति
परन्तु आज दिख रहे थे
उसमें तन पर उभरे हुए छाले
खिड़की के माथे से
बह उठी तभी जल की धाराएं
मैंने अपनी आंखों के
रुख को मोड़ने की कोशिश की
ताकि देख सकूं मैं
पानी की जन्मस्थली को
और इस कोशिश में
छिल गई मेरी आंखें भीतर तक
टीन के छतों पर गिरती
बुंदों की करर्कश ध्वनि
मार रही थी लगातार हथौड़े
मेरी वृद्ध मां के कानों में
खिड़की को बंद कर
जैसे ही मैं पलटी
मैंने देखा
मां की आंखों में
उग आई हरी घास की कुछ पातें
जिनसे झर रहे थे
टूटा हल
बंजर खेत-खलियान बनकर ।
मां की आंखों में
जवाब देंहटाएंउग आई हरी घास की कुछ पातें
जिनसे झर रहे थे
टूटा हल
बंजर खेत-खलियान बनकर ।
कितनी प्यारी और कितनी गहरी बात , कितनी आसानी से पिरो देती हैं आप | बहुत ही प्यारी पंक्तियाँ हैं सरिता जी
धन्यवाद सर आप के शब्द हौसला बढ़ा देते हैं
हटाएंमन को छू लेने वाली सुन्दर कविता |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
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