लौट आओ
गाँव की खेती देती है
आभास सूनी मांग का
लहराया था कभी
यौवन का भार
हर साल पकी थी
उर में रोटी
हवा मे गूँज रहा है अभी
मजदूरन का चैत का गीत
जब से गाँव झाक रहा है
शहर की तंग गलियों से
पगडंडियों पर खडी खेती
देखती है राह फट रहा है
धरती का सीना
कभी कलरव करती मैना
सीना भेदते बैलो को भी झेल
कष्ट के बाद पढा रही थी
सुख का पाठ
तंग गलीयों से
निकलकर आ जाओ
बुला रही है धरती
खेतों की मेढ
और पगडंडियां
फिर से आ जाओ
भर जाओ सूनी माँग
अब लौटना ही होगा....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर ये पूरानी रचना है पर अब लौटे नहीं लौटाए गए हैं
हटाएंलौट गए तो फिर कब आना हो पता नहीं ... काश गाँव रोक सके ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
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