धूप की यात्रा
धूप नंगे पाव आती है
उजाले का झाडू थामे
अँधयारे को बुहारती
सख्त दीवारों पर
पैर पसारती
धूल सनी किताबों पर बैठ
कदमों में लगे
तिमिर की फाके झाडती
धूप नही भूलती
चूल्हे पर चढ
तश्तरी में गिरना
पिछली रात का भीगा तकिया
बैठकर सुखाती
वहाँ से उठकर
बाबूजी की कुर्सी पर बैठ
धूप बतियाती है
नए कैलेंडर के नीचे से झांकते
पुराने कैलेण्डर से
निहारती है
समय का काँटा
जो कभी नहीं रुकता
छाव तले आया देख
धूप सपकपाती
राह ताकती
दरवाजे के आँख मे
लगा कर काजल
वादा कर धूप
मंदिर की घंटी सहलाती
मटमैले परदों से
झाँकते अँधयारे के बीच से
खिडकी से दबे पाव
चूम लेती ईश्वर का माथा
खेत से लौटती स्त्री को
पहुचा कर देहरी
धूप लौट जाती है
फिर आने के लिए .
जवाब देंहटाएंवादा कर धूप
मंदिर की घंटी सहलाती
मटमैले परदों से
झाँकते अँधयारे के बीच से
खिडकी से दबे पाव
चूम लेती ईश्वर का माथा
खेत से लौटती स्त्री को
पहुचा कर देहरी
धूप लौट जाती है
फिर आने के लिए .
बेहतरीन रचना ,शुभ प्रभात
धन्यवाद आपका
हटाएंधूप है, छाँव का एहसास करा जाती है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंधूप नंगे पांव आती है.. बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंधूप लौट जाती है आने में लिए ...
जवाब देंहटाएंधूप का आगमन ऊर्जा के साथ होता है और कण कण में ये फैल जाती है ...
आभार सर
हटाएंबहुत ख़ूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका
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