सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

धूप की यात्रा

धूप की यात्रा

धूप  नंगे पाव आती है 
उजाले का झाडू थामे 
अँधयारे को बुहारती 
सख्त दीवारों पर 
पैर पसारती
धूल सनी किताबों पर बैठ
कदमों में लगे
तिमिर की फाके झाडती
धूप नही भूलती 
चूल्हे पर चढ 
तश्तरी में गिरना
पिछली रात का भीगा तकिया
बैठकर सुखाती 

वहाँ से उठकर
बाबूजी की कुर्सी पर बैठ
धूप बतियाती है  
नए कैलेंडर के नीचे से झांकते 
पुराने कैलेण्डर से 
निहारती है 
समय का काँटा
जो कभी नहीं रुकता 

छाव तले आया देख
धूप  सपकपाती
राह ताकती 
दरवाजे के आँख मे
लगा कर काजल 

वादा कर धूप
मंदिर की घंटी सहलाती
मटमैले परदों से
झाँकते अँधयारे के बीच से 
खिडकी से दबे पाव 
चूम लेती ईश्वर का माथा 

खेत से लौटती स्त्री को 
पहुचा कर देहरी 
धूप लौट जाती है 
फिर आने के लिए .

टिप्पणियाँ


  1. वादा कर धूप
    मंदिर की घंटी सहलाती
    मटमैले परदों से
    झाँकते अँधयारे के बीच से
    खिडकी से दबे पाव
    चूम लेती ईश्वर का माथा

    खेत से लौटती स्त्री को
    पहुचा कर देहरी
    धूप लौट जाती है
    फिर आने के लिए .
    बेहतरीन रचना ,शुभ प्रभात

    जवाब देंहटाएं
  2. धूप नंगे पांव आती है.. बहुत खूब ।

    जवाब देंहटाएं
  3. धूप लौट जाती है आने में लिए ...
    धूप का आगमन ऊर्जा के साथ होता है और कण कण में ये फैल जाती है ...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना