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क्षणिकाएं

क्षणिकाएं


धूप सूखाने डाली थी मैंने पर 
मेरा गीला मन आसमान पे जा बैठा

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कभी कभी लगता है
ये आसमान
मेरी कोई
पुरानी किताब है
और ये 
जब भी बरसात हैं
मेरा कोई
नया गम
दर्ज़ करता है

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रोज देखती है वो
खिडकी के पार का बाजार
रंग बिरंगी फुल
उसके अलग अलग खरिदार
कुछ फुल आयेगे उसके हिस्से भी
कुछ जायेगे ईश्वर के हिस्से
कुछ में होगी प्रार्थनायें 
कुछ में होगी वासनायें
पर हर स्थिती मे रौंदी जायेगी
ईश्वरीय भावनायें


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जितनी जरूरत थी 
उतनी ही एहिमियत थी 
उसके उपरांत
आप को अलगनी पर
टंगा जायेगा 
किसी पूराने कपड़े की तरह

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हर तरह से हो रहे हैं वार
बीज से लेकर खरपतवार
वर्तमान की सतह से लेकर
भविष्य के गर्भ तक
बना दी गई है औरत देह
बिछी है चौसर की बिसात



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