प्रेम
उसने इस दो अक्षर के लिए
कितने बीहड़ पार किए थे
कितनी जिल्लते कितनी पीड़ा
कितने *धोखे* कितने *फरेब*
सहे थे अब तक
फिर एक दिन उन तमाम
रिश्तों पर सांकल चढ़ा दी थी
और वो लौट आयी थी उस जगह
जहां एक रोज सात साल की बच्ची ने
सिलबट्टे के पास बैठ जब देखा था
बारिश की एक नन्ही बुंद को छत से
टपकते देख अपनी पथराई आंखों से
कहा था उस बच्ची ने
तुम तो बिच्छड़ गई ना मेरी तरह
अपनों से पर तुम गुम ना होना कहकर
उस बुंद के अस्तित्व का पानी
वो छोड़़ आयी थी आंगन में
और कहां था तुम नदी बन जाना
और एक रोज सागर से मिल लेना
पर तालाब के किचड़ में गुम ना होना
जब वो लौट आयी थी उस दिन
उसी सिलबट्टे के पास बैठ खूब रोई थी
आज उसने फिर एक बार हिम्मत की थी
उस सांकल को खोल देहलीज पार कर
प्रेम के दो अक्षर में फिर एक बार घुल जाने की
और आज फिर एक बार टूटे मन
और छलनी देह लिए लौट आयी है
ना ही सिलबट्टा है ना ही वो छत बची है
जिससे एक बूंद बारिश टपकी थी कभी
नदी समंदर को मिलने की चाह में आज
तालाब के कीचड़ में गिरी थी
इस तरह और एक नदी
अपवित्र होकर मृत घोषित
कर दी थी वर्तमान के दस्तावेजों से
महिला !
जवाब देंहटाएंअच्छी भावाभिव्यक्ति !
शुक्रिया आप का
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जवाब देंहटाएंफिर एक दिन उन तमाम
रिश्तों पर सांकल चढ़ा दी थी
और वो लौट आयी थी उस जगह
जहां एक रोज सात साल की बच्ची ने
सिलबट्टे के पास बैठ जब देखा था
बारिश की एक नन्ही बुंद को छत से
टपकते देख अपनी पथराई आंखों से
कहा था उस बच्ची ने
तुम तो बिच्छड़ गई ना मेरी तरह
अपनों से पर तुम गुम ना होना कहकर
अति उत्तम ,मेरे पास शब्द ही नही है इस रचना की तारीफ करने के लिए ,बस मन वाह वाह कहता जा रहा है ,आपकी लेखनी को सलाम ,सादर प्रणाम
बहुत बहुत धन्यवाद आपका लिखना सार्थक हुआ
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