सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं
अरूण चद्र रॉय जी के कविता संग्रह में से एक कविता जिसका मराठी अनुवाद करने कि कोशीश कि है  "बेफ़िक्र दिखने वाली लड़की"



एक बिन्दास्त (दिसणारी) मुलगी


ती  जी
तिशीची मुलगी
हातात कॉफी चा कप घेऊन , 
एखाद्या मोठया कॉर्पोरेट हाऊसच्या
ऑफिसच्या बाल्कनीच्या रेलिंगला
बिन्दास्त टेकून उभी आहे 

जितकी दिसतेय
तितकी बिन्दास्त नाही ती .


भीतीचे किती तरी थर
जमा झालेत मेंदूत ,
ज्यात देशाच्या आर्थिक विकासाच्या आकड्यांशी निगडित
काही उद्देश्य आहेत ,
ज्यांना पूर्ण नाही केले तर
तेच होईल जे
साधारण घराच्या चार भिंतीत होतं .

एक भीती आहे
त्या नकोश्या स्पर्शांची ,
जो होतो
प्रत्येक मिटींगनंतर होणाऱ्या चहापानावेळी .
तिला टाळायचा असतो तो "नकोसा" स्पर्श
प्रत्येक घरगुती स्त्री प्रमाणे .

एक भीती
सावली प्रमाणे
करत असते
तिचा पाठलाग .
किती हि स्पष्टीकरण देऊन सुद्धा कि
तिचं नाही कुणाशी अफेयर . 

अशा कित्येक भितींमध्ये
जेव्हा सुकून जातात तिचे ओठ , 
तेव्हा ब्रांडेड लिप-ग्लॉस ओठांवर फिरवून
ती पुन्हा तयार होते
अजून एका मीटिंग साठी 
तितक्याच बिन्दास्तपणे.

पण खरं तर प्रत्यक्षात
तेवढी बिन्दास्त नाही ती
जितकी दिसतेय .

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्रेम 1

अगर प्रेम का मतलब  इतना भर होता एक दूसरे से अनगिनत संवादों को समय की पीठ पर उतारते रहना वादों के महानगर खड़ें करना एक दूसरे के बगैर न रहकर हर प्रहर का  बंद दरवाजा खोल देना अगर प्रेम की सीमा इतनी भर होती  तो कबका तुम्हें मैं भुला देती  पर प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई वो लकीर है  जो मेरे अंतिम यात्रा तक रहेगी  और दाह की भूमि तक आकर मेरे देह के साथ मिट जायेगी और हवा के तरंगों पर सवार हो आसमानी बादल बनकर  किसी तुलसी के हृदय में बूंद बन समा जाएगी  तुम्हारा प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई  वो लकीर है जो पुनः पुनः जन्म लेगी

रिक्तता

घर के भीतर जभी  पुकारा मैने उसे  प्रत्येक बार खाली आती रही  मेरी ध्वनियाँ रोटी के हर निवाले के साथ जभी की मैनें प्रतीक्षा तब तब  सामने वाली  कुर्सी खाली रही हमेशा  देर रात बदली मैंने अंसख्य करवटें पर हर करवट के प्रत्युत्तर में खाली रहा बाई और का तकिया  एक असीम रिक्तता के साथ अंनत तक का सफर तय किया है  जहाँ से लौटना असभव बना है अब

रमा

शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही  थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी  एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान  भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा  “  आप कहां जा रही हैं ?’’  “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।