बेरोजगारी की धूप
बेरोजगारी की कड़ी धूप तले
जब ढूंढ़ता है इंसान
रोजगारी की छांव
जब लगती है उसके जूते को
शहर महानगरों की धूल
देश दुनिया की खबरों से
रहता है वह बेखबर सा
पर नौकरी के पते से
भरी पड़ी रहती है उसकी जेब
शाम को लौटता है निराश सा
तो भोर चमकती है उसकी आंखों में
लेकर रोजगार का नया पता
नही जमने देता है वो
परत मायूसी की उन डिग्रियों पर
जिनमें जमी है बूंदें पसीने की
पिता ने कमर झुकायी है कमाते कमाते
माँ ने जलाये है दिये आस्था के
देना चाहता है वो उन्हे छांव निश्चिंतता की
पाना चाहता है एक ऐसा ठिकाना
मंजिल और स्वाभिमान को
मिले जहाँ एक नयी उँचाई
इस लिये रखता है वो अपने माथे
धूप के अंगारों का गमछा
और पैर समर्पित कर देता है तपती भू को ।
कावेरी
अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंदिल को छूती बहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
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