सड़क
मेरे गाँव आयी थी एक सड़क
उसे देखने पूरा गाँव चला
चलते चलते पुँहचा शहर
वहाँ कुछ सड़के मिली
और मेरा गाँव
सड़को की कतार में गुम हो गया
आज सड़क टूटी है
मंरम्मत के लिये रूठी है
अब फिक्र नही सरकार को
जब से अँगुठे ने पकडी है
शहर की रफ्तार को
यदा कदा दो जोडी आँखे
रहती है सड़क पर खडी
और जर्जर कन्धों पर सवार
श्मशान की तरफ निकलती है
रोज सूरज आता है
आँगन में बच्चों की किलकारियाँ
न पाकर समय के पहले ही लौट जाता है
चाँद भी थोडा सकुचाता है
टूटी छतों पर गिरते समय
विस्थापित सा महसूस करता है
जिस दिन सड़क से
शहर का सफर तय किया गया
उस दिन खलिहानों से
पंगडण्डीयों का सफर खत्म हुआ .
बढ़िया कविता . शुभकामनायें .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर जी
हटाएंबहुत कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया इन शब्दों में ...
जवाब देंहटाएंआभार
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