विस्थापन
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विस्थापितों के कोलाहल से
भरी पडी है
महानगरों की गलियां, चौराहे, दुकानें
सोंधी मिट्टी सी देह
सन रही है काले धुँऐं से
थके हुए मन को फुर्सत नहीं लौटने की
पंछी को मिल रहा है
बना बनाया घर
वे भूल रहे हैं
हुनर घोंसलों का
मुर्गे ने छोड़ दी है पहरेदारी समय की
जैसे सूरज की परिक्रमा नहीं करती पृथ्वी
हो गई है हद !
अब पीठ भी विस्थापित हो रहे हैं
बोरियां उठा रही हैं मशीने
खाली पीठ को याद आती है
गेहूँ की बोरियाँ
भूसे की गंध
डीज़ल की गंध से मिट रही है
हरियाली के बचे खुचे निशान
सुना है अब
कि कंक्रीट का जंगल
पसर रहा है अमरबेल की तरह
गाँव -गाँव, घर -घर
खेती की नाज़ुक देह पर
देखे जा सकते हैं,
लौह अजगर के दांतों के निष्ठुर निशान..!!
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बढ़िया कविता
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर....आपकी रचनाएं पढकर और आपकी भवनाओं से जुडकर....
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