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प्रतिदिन



प्रतिदिन
तुम आते हो
अपने हाथों की मुट्ठी बाँधे
कानों में धीरे से अगिनित
शब्द
दोहराते हो
लोचन प्रणयसूत्र में
देते हो बाँध
भर देते हो
गालों में स्मित हास्य
बो देते हो उर में 
प्रेम बीज

तुम आते हो प्रतिदिन
अब तो नियम सा हो गया है
तुम्हारा आना
जैसे आता है सूरज , चाँद
जीवन में
दे जाते हो शब्दों के कण
और तुम चाहते हो
कण कण मिलाकर
मै ऋचाएं रचूं
आलोकित करु जीवन
पथ
गढू नई सृष्टि
विचरुं तुम्हारे साथ
अपने होने का आभास
करुं

न छुकर भी सब कुछ पाना
न होकर भी मुझको भर देना
मुट्ठी खोलकर अपने
हाथों को
मेरे हाथों में देना
चलो मेरे संग उस निशब्द
दुनियाँ में
मेरे भावों को तुम शब्दों में
पिरोना
मेरे साथी तुम प्रतिदिन आना ।

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