खूबसूरत था मेरा अकेलापन
जिसमें मैं थी केवल मैं
पर तुम ज्वार की तरह दस्तक दे गए
और तहस-नहस हो गया
मेरा शेष जीवन
उदास नैनों में बसती है एक नदी
जो तुम्हारे अपमान के
छालों को बहाती हैं हरदम
कितनी ही दफा चाहा मैंने
मिटा दू उन स्मृतियों को
जहां तुमने दिये जख्मों का
एक पर्वत सा खड़ा हैं
पर पाषाण पर खींची रेखा
ना मिटी सकी ना समय की धूल ठहरी सकी
मुंडेर पर बैठे तुलसी
आसमान में ठहरा चांद
दिए की लौ में अक्सर
भाप लेते हैं मेरे आंखों से बहत जल
खूबसूरत था मेरा अकेलापन
जिसमें मैं थी केवल मैं
पर आज वहां गूंजती है
मेरी सिसकियों की ध्वनि
और खारे पानी का जलाभिषेक
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (28 मार्च 2022 ) को 'नहीं रूकती है चेहरे पर सुबह की नरम धूप' (चर्चा अंक 4383) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
खूबसूरत था मेरा अकेलापन
जवाब देंहटाएंजिसमें मैं थी केवल मैं
पर आज वहां गूंजती है
मेरी सिसकियों की ध्वनि
और खारे पानी का जलाभिषेक
जीवन की कशिश और उथल पुथल को इंगित करती पंक्तियां
सार्थक
दिल की गहराइयों को स्पर्श करती रचना, शुभकामनाओं सह ।
जवाब देंहटाएंकसक भरे शब्दों का सुंदर तानाबाना,
जवाब देंहटाएंहृदय को छूती हुई रचना दर्द के रिसते घाव।
अप्रतिम।
खूबसूरत है यह कसक भी जिसमें से जन्म लेते हैं अनमोल ख़यालात और बन जाती है एक सुंदर रचना
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