रात के सीने पर जब जब बहता है किसी औरत का काज़ल तब तब धरती के गर्भ में स्थित बीज डरता है पल्लवित होने से किसी डाल पर सुस्ताती चिड़िया के कान में आंगन से उड़ी कपास रख़ देती है एक चीख़ जो अभी अभी दरवाजे को चीरती सन्नाटे में विलीन हो गयी है और उस रात वृक्ष की जड़ सीचीं जाती है खारे पानी की धार से देवी के मंदिर में लगी घंटियां लौटा देती है उस रात कुछ एक प्रार्थनाओं को जिस रात औरत बुदबुदाती है अनगिनत नाकाम मन्नतों को कानून के घरों में बैठे इंसाफ के दस्तावेज़ हिलने लगते हैं आधी आबादी के आंसुओं के ज्वार से जब औरत रोती हैं तो आसमान में चांद को भी बेमानी सी लगती है अपनी चांदनी और ढक लेता है वो अपने तन को बादलों की आड़ में जब जब एक औरत रोती हैं असभ्यता सिंहासन की तरफ एक कदम बढ़ाती हैं और सभ्यता बैसाखी़ की ओर मुड़ जाती है