सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

दर्ज होंगे वो जख्म


दर्ज होंगे वो जख्म

इतिहास के पन्नों पर
दर्ज होंगे ये तमाम जख्म

हिम की  घाटियों में
जिस दिन 
ऋषियों के कमंडल में
पापियों ने
खून भर दिया था
उसी दिन मेरे देश का
एक अंग सुन्न हो गया था
दर्ज होंगे इतिहास के पन्नों पर
सफेद भू पर रक्तवर्णी कमल

जिस दिन
एक नारी ने 
बलात्कार के बाद
अपवित्र करार दी गई देह.को

प्रतिशोध की अग्नि में 

जलाकर भस्म कर दिया था 

उसी दिन धरती की
बाँझ होने की प्रक्रिया
आंरभ  हुई थी
दर्ज होंगी इतिहास के पन्नों पर
वो गीली चीखें आंसुओं से भरी

जिस साल
बीज बहे थे जलधारा में
गद्दी पर बैठे राजा ने
आश्वासनों को बांधकर 

भेजा था कागज़ में

जो मौसम की मार खाते-खाते
किसानों तक पहुँचते - पहुँचते
बह गया  लालच के तूफान में
जब मुआवज़े की रकम को
लिखते-लिखते टूट गई थी
सरकारी बाबू की कलम
दर्ज होंगे इतिहास के पन्नों पर
चमगादड़ बन लटके किसानों की लाशें

दर्ज हो जायेगी वो घटनाएँ
जहाँ सवाल गूंगा बना था
जवाब चाटुकारिता करते-करते
गधों के पैरों में लेट गया था
दर्ज  होगी वो रकम भी
जो संसद की दीवारों की
मरम्मत के लिए लगी थी
कहा जाता है
उस समय सबसे ज्यादा
संसद की दीवारें टूटी थीं
दर्ज  होंगी इतिहास के पन्नों पर
वो बेजुबान माली संसद के बगीचे का
जो वायदों के बेरंग होते रंगों को
संजो रहा है पौधे के गर्भ में 

टिप्पणियाँ

  1. आदरणीया मैम,
    आत्मा को झकझोरती हुई, देश की परिस्थिति पर मार्मिक कविता। पढ़ कर मन दहल गया!
    हाँ, सच में वो ज़ख्म दर्ज़ होंगेइतिहास के पन्नों में।
    आशा यही है, की यह ज़ख्म दोबारा न दिये जायें पर यह भी ज्ञात है कि ये पुनः दिए जाएँगे।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 29 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्रेम 1

अगर प्रेम का मतलब  इतना भर होता एक दूसरे से अनगिनत संवादों को समय की पीठ पर उतारते रहना वादों के महानगर खड़ें करना एक दूसरे के बगैर न रहकर हर प्रहर का  बंद दरवाजा खोल देना अगर प्रेम की सीमा इतनी भर होती  तो कबका तुम्हें मैं भुला देती  पर प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई वो लकीर है  जो मेरे अंतिम यात्रा तक रहेगी  और दाह की भूमि तक आकर मेरे देह के साथ मिट जायेगी और हवा के तरंगों पर सवार हो आसमानी बादल बनकर  किसी तुलसी के हृदय में बूंद बन समा जाएगी  तुम्हारा प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई  वो लकीर है जो पुनः पुनः जन्म लेगी

रिक्तता

घर के भीतर जभी  पुकारा मैने उसे  प्रत्येक बार खाली आती रही  मेरी ध्वनियाँ रोटी के हर निवाले के साथ जभी की मैनें प्रतीक्षा तब तब  सामने वाली  कुर्सी खाली रही हमेशा  देर रात बदली मैंने अंसख्य करवटें पर हर करवट के प्रत्युत्तर में खाली रहा बाई और का तकिया  एक असीम रिक्तता के साथ अंनत तक का सफर तय किया है  जहाँ से लौटना असभव बना है अब

रमा

शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही  थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी  एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान  भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा  “  आप कहां जा रही हैं ?’’  “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।