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औरत

जहाँ जन्मी तूँ,शब्दों को
बोली मिली
खोल के पंख े,बगिया
में फूल खिली ।

तुलसी लगाई तूने  पिता के
अॉगन में
जल अर्पण किया पति के
प्रांगण में,

जब जब तेरे उदर में अंश
पला पति का वंश बढ़ा
पर बाँझपन का भार तूने
ही ढोया ।
अर्पित कर तुम जीवन
अपना,
सोच रही क्या पाया ,
क्या खोया ।

दरवाजे पे तेरे नाम का
तख्त न हुआ,
फिर भी पूरा जीवन इसी
बेनाम घर को दिया ।

डाकिया कभी उसको ढूंढ
कर नहीं आता,
फिर भी उसे उसका ,
इन्तजार रहता ।

अनगिनत किरदारो में जीती
है तू
हर किरदार में किरायेदार
रहती है तू ।


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर पंक्तियाँ। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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