पिढा़ से गुजरती एक औरत
वो औरत थी उसकी
वो जब चाहता
अपनी मर्ज़ी से
उसे अलगनी पर से उतारता
इस्तेमाल करता और
फिर वही
ऱख देता
फिर आता
फिर जाता
जितनी बार उसे उतारा जाता
उसके शरिर मे एक नस टूट जाती
चमड़ी से कुछ लहू नजर आता
जितनी बार उसे उतारा जाता
उसके नाखुनों से
भूमि कुरेदी जाती
हर कुरदन जन्म देती एक सवाल को
उसके आँखो का खारापानी
जम जाता उसके घाव पे
उसके लड़ख़डा़ते पैर
उसके रक्तरंजित मन
उसकी लाचारी
उसकी बेबसी
उन्ह तमाम पुरूषो के लिये
एक प्रश्न छोड़ जाती है
औरत केवल देह है ???
वो औरत थी उसकी
वो जब चाहता
अपनी मर्ज़ी से
उसे अलगनी पर से उतारता
इस्तेमाल करता और
फिर वही
ऱख देता
फिर आता
फिर जाता
जितनी बार उसे उतारा जाता
उसके शरिर मे एक नस टूट जाती
चमड़ी से कुछ लहू नजर आता
जितनी बार उसे उतारा जाता
उसके नाखुनों से
भूमि कुरेदी जाती
हर कुरदन जन्म देती एक सवाल को
उसके आँखो का खारापानी
जम जाता उसके घाव पे
उसके लड़ख़डा़ते पैर
उसके रक्तरंजित मन
उसकी लाचारी
उसकी बेबसी
उन्ह तमाम पुरूषो के लिये
एक प्रश्न छोड़ जाती है
औरत केवल देह है ???
बहुत मार्मिक रचना...
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
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