दयानंद तैयार होकर बैठा था। बाहर रुक रुककर बारिश हो रही थी । अभी जून का महीना शुरू हुए दो ही दिन हुए थे ।आंगन के बाहर आम के पेड़ पर कहीं-कहीं डालियों के आड़ में दस_बीस आम थे जो देर से डाल पर लगे और अब पकने के पहले ही बारिश और हवा इसे गिरा देगी । इतने में दयानंद की नजर एक आम पर जाकर रुकी जो बिल्कुल हरा था पीला होने के कोई लक्षण भी दिखाई नहीं दे रहे थे और उस आम के ऊपर एक पीला पत्ता था मानो इस आम के सहारे अभी तक डाल पर टिका है ऐसा लग रहा था। भीतर रसोई में पत्नी तारा बची हुई चीजों की पोटली बाँधकर साथ ले जाने की तैयारी में लगी थी । रसोई से आती खटपट की आवाज़ बाहर बैठे दयानंद के मन के भीतर टूट रहे खटपट के साथ मानो मेल खा रही है ऐसा ही कुछ वो महसूस कर रहा था । दुगनी रफ़्तार से कुछ टूट रहा है ऐसा उसे लग रहा था। यह टूटने का क्रम पिछले दस साल से शुरू था । हर साल मई महीने के अंत में गांव में आना पंद्रह दिन रुककर फिर पोटली बाँधकर वापसी शहर की तरफ होती । दयानंद ने बेटे गौतम को कितनी बार समझाया हम यहीं रहते हैं। पर बेटा हर बार मना करता रहा। नोकरी के दिनों के दौरान सोचता था रिटायरमेंट के बाद...