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विरह

डुबोकर रक्त में तिनके  मै तुम्हारा विरह लिखती हूँ  जिन राहों पर साथ चलते चुभे थे पैरों में  कभी अपमान के कांटे तुम्हारे तिरस्कार के  तलवों में पड़े छालों से  पत्थरों पर उगे निशान मैं लिखती हूँ  रास्ते में पड़ते मंदिरों की चौखट में  बुदबुदाया करती थी मैं  तुम्हारे मुश्किलों की गांठें  उन कामयाबियों के  मन्नतों के धागे मैं लिखती हूँ  गोधूलि में लौटते   पक्षियों की थकान  जानवरों के पैरों में  लगे भूख के निशान  मेरे वापसी के सफर में  यातनाओं की वो गठरी  आँखों के किनारे पर  अपना साम्राज्य फैलाता  वह संमदर  और कुछ इस तरह से  तुम्हारी बेवफाई की पीठ पर  मै आज भी वफा लिखती हूँ

हो जाओ तुम मुक्त

उस व्यवस्था से तुम  हो जाओ मुक्त  जो छाँव देने के भरोसे के बदले  छीन लेती है तुम्हारी  स्वनिर्मित आशियाने की छत उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारी हथेली पर खींच देती है एक रेखा  भाग्य के सिदुंर की  और छीन लेती है  तुम्हारी अँगुलियों की ताकत  उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारे कंधों पर रख देती है हाथ जीवन भर साथ निभाने के  आश्वासन के साथ  और तोड़ देती है एक मजबूत हड्डी  तुम्हारे बाजुओं की उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारे ह्रदय के गर्भ गृह में हो जाती है प्रेम से दाखिल  और तुम बसा लेती हो एकनिष्ठ एक ईश्वर की प्रतिमा  जिस दिन  तुम हठ करती हो एक कतरा उजाले की वो छीन लेती है  तुम्हारी आँखों की पुतलियाँ।

प्रेम

प्रेम वो नहीं जो तुमने किया अपनी सुविधा के अनुसार बल्कि प्रेम वो था  जो तुम्हारे पास समय की  कमी के कारण तुम्हारे आफिस की फाइलों में बंद रहा  और मैं दिन महीने साल दर साल प्रतीक्षारत रही अक्सर शाम चाय चढ़ाते समय जब मैं तुम्हे पूछा करती थी  आज कितनी बार चाय हो गई तुम झूठ कहते थे हर बार पर पूरे दिन की दिनचर्या में जितनी बार तुम्हें याद करती प्रत्येक बार एक बूंद चाय की  तुम्हारे होंठ से मेरे होंठों तक का  सफर तय करती अलमारी में है आज भी खाली लाल रंग की साड़ी की जगह  जितने फिक्र से टटोलती थी  तुम्हारा बटुवा  उतनी ही बेफिक्री से प्रत्येक बार मांगती थी तुमसे हर त्यौहार में घुले रंग की भाँति पहनी साड़ी सी तुम्हारे प्रिय रंगों को बदलता देख  मैं हर बार मुस्कुराती थी  मन ही मन प्रेम वह था जो मैंने  अभावों में भी है जिया तुम्हारे छोड़ कर चले जाने के बाद भी  उपहार में तुम्हारे दिये हुए  आंसुओं को   तुम्हारी बदनामी के भय से  कभी अपनी आंखों से बहने नहीं दिया  यद्यपि हृदय से उठती हुंकार पर हर बार मेरे होठों पर विरह का एक *गीत* रख दिया और मैने उसे ही अपना जीवन का संगीत मान लिया