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अप्रैल, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यह समय नहीं है

अभी मुझे बहुत दूर तक जाना है  इसी प्रक्रिया में अनदेखे हो सकते हैं  मेरी आंखों से कुछ रंग फूलों के कुछ रंग तितलियों के पर यह समय नहीं है  मेरे मन को खुबसूरत परिवेश  मे जीने के लिए छोड़ देने का  मैंने नहीं तय किया है  अभी तक आधा रास्ता भी  उस अन्याय के खिलाफ  जहां मौजूद हैं चीखे  रेगिस्तान के रेत में दफन बच्चियों की  प्रसव के दौरान मरे हुए स्त्रियों की  हाथों से किताबों को उतारकर  चढ़ाई गई मेहंदी की मन का गणित जो बिगड़ गया हैं  अब तक और भविष्य में  संभावनाओं के नाम पर मौजूद हैं  सरकारी दस्तावेजों पर केवल  कुछ हस्ताक्षर ही  ऐसे समय में देह के गणित का मैं कहां तक सोच सकती हूं ?

युद्ध

हिंदी की एक युद्ध कविता अंग्रेजी अनुवाद सहित                ★★★★★★★★★ युध्द         सरिता सैल,प्राध्यापक,हिंदी विभाग,कर्नाटक कितने युद्धों की बनूँ मैं साक्षी  हर कदम की दूरी पर  नींव पड़ती नए युद्ध की  समेटने का क्रम नाकाफी विस्थापन का विस्तार  उजाड का फैलाव  होता जा रहा अनंत  न आप, न मैं कदाचित कभी न गुज़रेंगे युध्द की इति के उत्सव से यह फसल आयुधों की लहलहाती  पहुँचाएगी हमें  शायद  सृष्टि के पतझड़ तक कैसा यह विनाश का यह खेल ..          ######### इसका अंग्रेजी में अनुवाद `~~~~~~~~~~~ War ●● How many wars should I be witness of At the distance of every step There is laid foundation of new war The process of winding up is insufficient Expansion of displacement  Extension of demolition Going on being infinite Neither you,nor I wil Probably ever pass through The festivity of the end of war This crop being full of green leaves Of dreaded weapons Will perhaps make us Reach the autumn of the universe How is this The game of demolition...                         ---sarita sail           ℅℅℅℅℅℅℅℅

प्रिय

प्रिय तुम कभी नहीं बन सके एक अच्छे प्रेमी पर एक बेहतरीन मार्गदर्शक जरूर बने तुम्हारी जटिल से जटिल राजनीति और अर्थशास्त्र का ज्ञान देख मैं हमेशा अचंभित रही पर मेरे ह्रदय में बसा सबसे सरल प्यार तुम कभी समझ नहीं सके मजदूर के उदासी का रंग   अपनी क़लम में भरकर तुमने क्रांति लिखी पर मेरी आंखो में तैरता विरह का रंग तुम कभी पढ़ नहीं सके प्रिय

संभावनाएं बनी रहे

अपने इर्द-गिर्द मौजूद रखो  हमेशा कुछ खिड़कियां  ताकि हवा रोशनी और पानी  बना रहे जीवन में  कुछ दरवाजे भी खुले छोड़ दो  किसी पता कब कौन सा रास्ता  मंजिल का आकर  तुम्हारे कदमों से टकराए  कुछ संभावनाओं की नमी  भी हाथों की लकीरों में  पनपती रहने दो  ताकि असंभव के गर्त में  समाऐ कहानियों को  पंख लगे और निकल आए  कुछ नई संभावनाएं  निराशा की टोकरी में रख छोड़े  कुछ कड़वे फलों को  थोड़ा अनुभव और समय की  आंच में पकने दो  किसी पता उम्मीदों के फल  पुन्हा जीवन की टोकरी  से निकल आए संभावनाओं की खेती बची रहे जीवन में ताकि बची रहे जीवन जीने की जिजिविषा

जिम्मेदारी

सुबह अक्सर जल्दी जगा देती है और पैरों को जिम्मेदारी से लेप देती है तब अनगिनत तलवें आधी  निदं से उठकर पृथ्वी के सबसे जटिल रास्ते के सफर पर निकल पड़ते हैं और ये सब लोग एक सिक्के के लिए पाषाण  आधी रोटी के लिए पूरा समंदर और एक छत के लिए सारे आसमान पर  अपने तलवे की चमड़ी बेच आते हैं

प्रतिदिन

प्रतिदिन तुम आते हो अपने हाथों की मुट्ठी बाँधे कानों में धीरे से अगिनित शब्द दोहराते हो लोचन प्रणयसूत्र में देते हो बाँध भर देते हो गालों में स्मित हास्य बो देते हो उर में  प्रेम बीज तुम आते हो प्रतिदिन अब तो नियम सा हो गया है तुम्हारा आना जैसे आता है सूरज , चाँद जीवन में दे जाते हो शब्दों के कण और तुम चाहते हो कण कण मिलाकर मै ऋचाएं रचूं आलोकित करु जीवन पथ गढू नई सृष्टि विचरुं तुम्हारे साथ अपने होने का आभास करुं न छुकर भी सब कुछ पाना न होकर भी मुझको भर देना मुट्ठी खोलकर अपने हाथों को मेरे हाथों में देना चलो मेरे संग उस निशब्द दुनियाँ में मेरे भावों को तुम शब्दों में पिरोना मेरे साथी तुम प्रतिदिन आना ।

विश्व किताब दिवस पर

याद आते हैं वे अनगिनत बच्चे  जो पगडंडी से होकर गुजरते थे पाठशाला के लिए एक हाथ से किताबें पकड़ते  दूसरे हाथ से कभी  धान की बालियों को छूते  तो कभी अमिया पर  पत्थर फेंकते  कभी कीचड़ से सने पाव लेकर  तो कभी तपते पाषाण पर से  चलकर पहुंचते थे पाठशाला में आज विश्व किताब दिवस पर  याद आ रहे हैं वो  अनगिनत बच्चों की कतारें  जो कभी भविष्य के  सपनों को साकार करने निकले थे  पगडंडी के रास्ते  बारिशों में अपने बुशर्ट के भीतर बचाकर किताबों को  आज वे पहुंचे होंगे सब कामयाबी की राह पर

एक थी रुनू

       गर्मी बड़ रही थी  , रूनु को देर तक इन्तजार करने के बाद रिक्क्षा मिल गया उसी दौरान खुद को उसने मन ही मन कोस लिया क्यू उसने स्कुटी चलाना छोड़ दी । रिक्क्षा के चल पड़ने से एक हवा का झौंका उसके बदन को हल्की सी राहत दे गया और अपनी आदत के अनुसार उसने रिक्क्षेवाले से उसके घर-बार सुख दुःख की दो चार बातें पुछ ली तबतक  बैंक आ चूका था ।                      वैसे तो आज भी वो बैंक में जाने से थोड़ा कतराती थी अंदर जाकर वो बैठ गई और बेटे भरत के फोन का इंतजार करने लगी  । जो सपना या जिसका ना होने का दर्द उसने तमाम उम्र ढोया था बचपन से लेकर आज तक खुद  के घर में रहने का सुख उसे नहीं मिला था । कभी दया के कारण कहीं जगह मिली  तो कभी किरायेदार बनकर रही पर जहां -जहां रही वहां-वहां लोगों के आंखों में उसने अपने प्रती दया और उपकार का भाव ही देखा ! इसलिए उसे हमेशा से ही दया से उपजे प्रेम और उपकार से मिली मदद से उसे नफ़रत सी थी । भरत जैसे बेटे का होना मानो उसे किचड़ के बीच कमल के पुष्प का होने का सुख देता था । उसे आज पहली बार अपने घर का सपना पूरा होता  दिख रहा था ‌। घर खरीदने के नाम पर उसके पति ने उसे कहीं

नदी

तुमने दिऐ हुए जख्मो के रक्तरंजित दरिया में उतरना और उस पिडा़ को जीना मानो उस नदी की तरह होता है जो झेलती है अपने देह पर भिषण बांड का सैलाब उसके किनारे पर जमा होती है संसार ने दिए जख्म उसके पैर धस जाते हैं स्वार्थीयों के किचड़ में उसका वेग धीमा पड़ जाता है और ऐतिहास के पन्नों पर एक नदी मर जाती है उसके शरीर पर जमें रहते हैं पपड़ियों के निशान जो चीख चीखकर न्याय की अपील करते हैं पर स्वार्थीय़ो के रुसुख और रूदबे से दस तोड़ देती है  उसकी पूकार और सदियों तक उसके देह पर विभस्य हंसी की ध्वनी गुजती रहती है

अंधियारे को भेदकर

बौना नजर आता है समाज का हर वो बांशिदा जो जिम्मेदारियों को रख नेताओं के कंधे पर केवल शब्दों के बाण देता है छोड़ आओ उठाओं जिम्मेदारी का चादर जो गिरा विकास पर बनकर कफन धरा की आत्मा से उर्जा का रस निकालो उडेल दो आसमान पे और लगा दो बांशिदों के पीठ पर एक पंख जिसकी उडान अँधेरे को भेदकर उजाला कर दे । कावेरी

धर्म बनिए का तराजू बन गया है

सबके पास धर्म के नाम पर  हाथों में उस बनिये का तराजू हैं  जो अपने अनुसार तौलता  है  धर्म के असली दस्तावेज तो  उसी दिन अपनी जगह से खिसक गए थे जिस दिन स्वार्थ को अपना धर्म  बेईमानी को अपना कर्म  चालाकी को अपना कौशल समझकर इंसानियत के खाते में दर्ज किया था

कविता

कविता लिखी नही जाती वह तो बुनी जाती है कभी नेह  के धागों से तो कभी पीड़ा की  सेज पर जैसे एक स्त्री बन जाती है मिट्टी रोपती है देह में नंवाकूर को वैसे ही कविता का होता है जन्म ह्रदय है उसके पोषण का गर्भ जब उतारी जाती है पीड़ा कागजों पर कुरेदता है एक कवि कछुवे की पीठ बैठता है आधी रात को कलम के साथ घसीटता है खुद को बियाबान के नीरव अकेलेपन में नही देख सकता है वो अपने इर्द गिर्द जिन्दा लाशें मरे हुये वजूद की कचोटता है अपने कलम कि स्नाही से उन्हकी आँखो की पुतलियाँ को रखना चाहता है अपनी आत्मा पर एक कविता रोष और आक्रोश की जब प्रेम झडने लगता है कवि की कलम से नदी की  देह पर उतर आता है चाँद प्रेमिका का काजल बहता है इन्तजार में और कवि जीता है प्रेम की सोंधी सोंधी खुशबू को

औरत

हर औरत के भीतर  होता है एक वृक्ष  बडी मजबूती से अनुभवों की जडे पसारती है वो भीतर से भीतर  निरतंर बचती है वो दीमकों से  जो बैठा है जा उसके स्वाभिमानी जडो पर  औरत के अतंस में  बहती है एक नदी खारेपन की ओढकर उस पर परत फौलादी दौडती है वो निरतंर सघर्ष की धूप  मे नन्ही कपोलो के लिये लेकर नमी अचानक होता है उसे आभास  जड़ों से दूर होती मिट्टी का एहसास  यातनाओ का चक्र हाथ से समेटते रिश्ते होते है रक्तरंजित पत्तों का मौन होना शुरू होता है वृक्ष का ठूंठ हो जाना

नदी

सूरज के अस्त होने से  छा जाता है नदी के देह पर एक सन्नाटा मन में भर जाती एक उदासीनता  उसका अल्हडपन ढूंढती रहती है एक तलहटी जिसकी गहराई मे जा बैठती है वह  मौन हो ।

जिस दिन उसने ज़बान खोली थी

मैं उसे बरसों से जानता था  वो ना के बराबर बोलता था  मैं दाल चावल का भाव पूछता था  वो मेरी तरफ अनदेखा करता था  मालिक का हिसाब किताब लिखता था । दो बोतल पानी के साथ एक रोटी  खाता था  इन दिनों उसकी हड्डियां गिनती में आ रही थी  तनख्वाह के बही खाते में पुराना अंक देख इन दिनों वो बेजार सा रहने लगा था  । जिस दिन कलम को जेब से नही निकाला था उस दिन उसने भूजाओ की मदद से  अपनी जिव्हा को  बाहर खींचा था  और वो मालिक के सामने बहुत कुछ बोला था । अंत में उसने अपनी औकात उठाई थी  और तनख्वाह के आंकड़े के साथ  मालिक को उसकी औकात बताई थी  मैं उसे आज भी जानता था  आज वो रोटी को अपनी भूख से नहीं  अपने स्वाभिमान के साथ आंकने लगा  था ।

अपनी सहूलियत के हिसाब से

नजरअंदाज कर उन तमाम अपशब्दों को जो आपके अच्छाई के बदले में आपके हिस्से में आती हैं लोक यहां अपनी सहूलियत के हिसाब से आपके बारे में अपना मत बदलते हैं माना आसान नहीं होता उस जगह से अपमान का घूंट पीकर खामोशी से लौटना जिस जगह की खुशहाली के लिए मन्नतो की चिट्टियां ईश्वर के चरणों पर अनगिनत बार आपने अर्पण की हो अपने भीतर एक रक्त रंजित घाव  समेटे रखना थोड़ी सी हवा लगने पर उतर सकते है अपनों के ही चेहरे पर से मुखोटे इसीलिए तो उसने जख्मों पर ओढ़ रखी है लोहे की चद्दरें यातनाएं देने वाले शहर का पता अनजान बीहड़ में छोड़ आई है वो जिसने उसकी संवेदनाओं का भोग किया उसी ने आज उसे चौराहे पर खड़ा करके असंवेदनशीलता का गहरा घाव दिया दुनिया की उंगलियों को उसकी ओर मोड़ दिया हे प्रियवर अपनी सहूलियत के लिए उसे बता देना और कितने घावों का हिसाब बाकी है ताकि वो इस संसार  से विदा होने के पूर्व तृप्त कर सकें तुम्हारी हर इच्छाओं को

एक थी कावेरी

               पागल से अस्त-व्यस्त बालों वाली कावेरी बचपन से जवानी तक और उसके आगे भी बोझ होने का बोझ उठाते रही । निसंतान चाची के पास छोड़ दिया तो बचपन उस धरती पर  गुजरा कावेरी का  जिस धरती पर कभी बीज अंकुरित नहीं हुआ था । चाची से तो ममता नहीं मिली पर हां जीवन का गणित जरूर सीख लिया । जिस दिन डांट पड़ती उस दिन उसके बाल नहीं बनते और नन्हे हाथों से कावेरी अपने बाल सवारती  स्कुल पहुंचने में देरी होती अगर गणित के अध्यापक कक्षा में होते तो खूब धुलाई होती । वैसे भी कावेरी को गणित और गणित का मास्टर दोनों यमराज से लगते ।  जबरदस्ती पहले बैंच पर बिठाया जाता और जिस दिन बोर्ड के तरफ उसकी सवारी गणित के अध्यापक  कक्षा में निकालते उस दिन बच्चे खूब हंसते और शर्म से गडी गडी कावेरी बगीजे के आम के नीचे बैठकर खूब रोती वो सीखना चाहती थी पर सिखाएगा कौन यह सवाल था ।              बस्ती की लड़कियां भी कावेरी से चिकनी चुपड़ी बातें करके अपना काम निकलवा लेती कभी कावेरी से कलसी में पानी भर कर लिया जाता तो कभी आंगन में गोबर लिपकर लिया जाता बस कावेरी को किसी ना किसी का साथ चाहिए होता खूब हुड़दंग मचाती बस्ती में लड़क