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अक्तूबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

युध्द

दो देशों के बीच  जब युद्ध का ऐलान हुआ था  तब इस ओर से सरहद पार कर  एक तितली उस ओर  गई और उस ओर से एक तितली इस ओर आई दोनों सरहद पार कर  अलग-अलग देश में  कहीं दिनों तक रहे और लौट आए  इस तरह बेजुबान होकर भी  बहुत कुछ कह गए  और जुबान वाले विनाश की बमबारी करते रहे

अब खुद के पास रहना जरुरी लगने लगा है

तुम्हारी जाने के पश्चात मैंने गढ़ ली है  प्रेम की एक अलग सी दुनिया  जिसमें रात की टोकरी में  समय अपनी पैनी हथेलियों से  लिखता है चांद की पीठ पर मेरा विरह  तुम्हारे जाने के पश्चात  मैंने अपनी घर से वो तमाम राहें कर दी अलग   जहां से आती थी  मेंहदी और सिंदूर की महक  तुम्हारे जाने के पच्छात  मैं नहीं गुजरी उन चौराहों से  जहां मुझे अकेली औरत कम  और एक देह अधिक समझा जाता रहा तुम्हारे जाने के पश्चात  तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा के  दहलीज पर मैंने  एक पाषाण रख छोडा है अब  क्योंकि मुझे तुम्हारे लौटने से अधिक  मेरा खुद के पास अब रहना जरुरी लगने लगा है

काश

शाम जब  अंधकार की पोटली  खोल देती है  तब शिद्दत से महसूस होती हैं  किसी की कमी  काश वो जुगनू की तरह  कभी देता दस्तक  और इस भयावह रात के  डरावने क्षणों पर पंख फैलाकर बैठ जाता बिस्तरों पर पड़ी सिलवटें  गवाह है उन करवटों की  जो उस ओर का खालीपन  रात रात भर अपने भीतर  सोकती रही और शिद्दत से  महसूस करती रही  किसी के चले जाने के बाद उसकी कमी   सूरज की जेब से निकल आए  एक दिन ऐसा भी  चल पडू मैं किसी यात्रा पर  और दरवाजे पे ताला नहीं  किसी की प्रतीक्षा की आंखें लगी हो काश एक दिन ऐसा भी निकल आता

बहुत कम जाना मैंने

बहुत कम जाना मैंने  लोगों के  व्यवहार को  पर एक बात जानी सदा  बहुत कम जानकर भी  आप खुद को अगर  अधिक जानते हैं  तो उस अवस्था में  आप बहुत कुछ दे सकते हैं  इस दुनिया को जैसे  सदाचार ,भरोसा, अनुराग.... 

उदासीन दिनों में

 उदासी भरे दिनों में सबसे अधिक जरूरत महसूस हुई उसे तुम्हारी तुम हमेशा हल्के फुल्के दिनों में मौजूद रहे सदा उसके आंखों का भारीपन अक्सर सजा लिया घास की पत्तियों ने अपने तन पर धीरे-धीरे तुम उसके जीवन की किताब से हटते गए और स्मृतियों के दस्तावेजों में जुड़ते रहे उसकी मुस्कुराहट तो हर किसी ने देखी पर उसके बंद दीवारों के भीतर उसके देह का सुख भोगने वाला भी उसके मन की उदासी भरे दिनों में शामिल नहीं हो सका उदासी भरे दिनों में सबसे अधिक जरूरत महसूस हुई उसे तुम्हारी

सुनो

मंदिरों में सजाया गया मुझे  पर क्या घर आंगन में  उतनी ही सहजता से  क्या स्वीकारा गया है  मुझे  गर्भ से लेकर श्मशान तक  कितनी कठिनाइयों को झेला  पर इस रोष में कभी  संसद पर ताला चढ़ाया है तूने ?  देवालयों के गर्भगृह में  सदा कीमती परिधानों से ढकी रही पर धूल ,मिट्टी कूड़े  के बीच  अपनी संतति की भूख बिनती  कात्यायनी के फटे वस्त्रों को  कभी  निहारा है तूने ? नहीं ना  तो सुनो  मैंने उन तमाम दहलीज को लांघा हैं जहां मैं मूर्तियों में रची बसी गयी अब मैं रहती हूं उस अस्मिता के पीठ पर छांव बन जहां झुलसती है रोटी  उन बिस्तरों के सिलवटों  पर  जहां औरत देह समझ नोची जाती है  मैं बसती हूं उस कपाल के मध्य  जहां बिंदी नहीं पसीना थकान बन बहता है

अकेली औरत

उसकी घर की दीवारों पर खिड़कियाँ अब नहीं बची हैं और जो है ,उसे वो खिड़कियाँ इसलिए नहीं कहती है क्यों कि वहाँ से वो जभी बाहर की दुनिया में देखने की कोशिश करती है इसके पहले ही इन खिड़कियों पर वो तमाम आंखें मौजूद रहती हैं जिन्हें देखना होता है अकेली औरत सच में अकेली रहती हैं या फिर उसकी देह से पर पुरुष की गंध आती हैं या फिर उसके दरवाजे़ पर ताला चढ़ाने का और उतारने का समय कही बदला तो नहीं अगर बदला भी है तो फिर क्यों बदला है ? असमय खुलता हैं दरवाजा जभी तब तब मोहल्ले की दस खिड़कियां भी खुल जाती  हैं और आज के समय में ज्यादातर खिड़कियाँ भीतर से नहीं बाहर से खुलती हैं पर आने वाले समय में अकेली औरत उसकी खिड़कीे पर जमा अनायास प्रश्न चिन्हों की धूल लापरवाही के अंदाज में झाड़कर ऊँची तान में संगीत की धुन छेड़ देगीं गली मोहल्ले की खिड़कियाँ निरुतरता के साथ बंद होगी

सहयात्री

मैं हर यात्रा में तुम्हारी अदृश्य सहयात्री हूँ तुम अपने गंतव्य पर उतर जाते हो और तुम्हारे पदचाप की ध्वनि मेरे अंतिम पड़ाव तक कानों में घुमती रहती हैं तुम्हारे शब्द खिड़की से दस्तक दी हुई धूप से मेरी झुलसी त्वचा पर किसी ऋषि के कमंडल से निकले जल सा प्रभाव करती हैं