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दिसंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
कविता कविता लिखी नही जाती वह तो बुनी जाती है कभी नेह  के धागों से तो कभी पीड़ा की  सेज पर जैसे एक स्त्री बन जाती है मिट्टी रोपती है देह में नंवाकूर को वैसे ही कविता का होता है जन्म ह्रदय है उसके पोषण का गर्भ जब उतारी जाती है पीड़ा कागजों पर कुरेदता है एक कवि कछुवे की पीठ बैठता है आधी रात को कलम के साथ घसीटता है खुद को बियाबान के नीरव अकेलेपन में नही देख सकता है वो अपने इर्द गिर्द जिन्दा लाशें मरे हुये वजूद की कचोटता है अपने कलम कि स्नाही से उन्हकी आँखो की पुतलियाँ को रखना चाहता है अपनी आत्मा पर एक कविता रोष और आक्रोश की जब प्रेम झडने लगता है कवि की कलम से नदी की  देह पर उतर आता है चाँद प्रेमिका का काजल बहता है इन्तजार में और कवि जीता है प्रेम की सोंधी सोंधी खुशबू को
बेरोजगारी की धूप बेरोजगारी की कड़ी धूप तले जब ढूंढ़ता है इंसान रोजगारी की छांव जब लगती है उसके जूते को शहर महानगरों की धूल  देश दुनिया की खबरों से रहता है वह बेखबर सा पर नौकरी के पते से भरी पड़ी रहती है उसकी जेब शाम को  लौटता है निराश सा तो भोर चमकती है उसकी आंखों में लेकर रोजगार का नया पता नही जमने देता है वो परत मायूसी की उन डिग्रियों पर जिनमें जमी है बूंदें पसीने की पिता ने कमर झुकायी है कमाते कमाते माँ ने जलाये है दिये आस्था के देना चाहता है वो उन्हे छांव निश्चिंतता की पाना चाहता है एक ऐसा ठिकाना मंजिल और स्वाभिमान को मिले जहाँ एक नयी उँचाई इस लिये रखता है वो अपने माथे धूप के अंगारों का गमछा और पैर समर्पित कर देता है तपती भू को । कावेरी