तुमने दिऐ हुए
जख्मो के रक्तरंजित
दरिया में उतरना
और उस पिडा़ को जीना
मानो उस नदी की तरह
होता है जो झेलती है
अपने देह पर
भिषण बांड का सैलाब
उसके किनारे पर
जमा होती है
संसार ने दिए जख्म
उसके पैर धस जाते हैं
स्वार्थीयों के किचड़ में
उसका वेग धीमा पड़ जाता है
और ऐतिहास के पन्नों पर
एक नदी मर जाती है
उसके शरीर पर
जमें रहते हैं पपड़ियों के निशान
जो चीख चीखकर
न्याय की अपील करते हैं
पर स्वार्थीय़ो के
रुसुख और रूदबे से
दस तोड़ देती है
उसकी पूकार
और सदियों तक
उसके देह पर
विभस्य हंसी की
ध्वनी गुजती रहती है
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२२-०४ -२०२२ ) को
'चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं'(चर्चा अंक-४४०८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मार्मिक
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना! साधुवाद!
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