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अक्तूबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
कलम कि नोंक पर चढकर हर अन्यायी मुस्कुराता है कच्ची देंह से रिसता  खून बेईमानी की जेब से बहता है विकास का हर पन्ना सोता है पक्ष क्या विपक्ष क्या संसद की चारदिवारी में चुपके चुपके हँसता है किसानों के देह पर कफन ओढ़ा कॉपरेट दुनिया का चेहरा मुस्काता है
इन्तजार हर कण में होता है निहित जन्म से लेकर मरण तक दुख से लेकर सुख तक फिर हो वो व्यवहार का बाजार या हो वो भावनाओं  का संसार निहारना कभी उस उदास चेहरें को बेच रहा है जो गंली चौराहे पे झाडू बरतन सब्जी खिलौना इन चीज़ों के साथ साथ लेकर घूमता  है वो एक इंतजार सर का बोझ होकर थोडा सा हल्का पुँहच जाता है उसकी जेब तक खत्म होता है तब चंक्की चूल्हे का इन्तजार सरहदों पे तैनात है अनगिनत इन्तजार बूढ़े  चश्मे को बेटे के लौटने का इन्तजार जीवन  संगिनी को है मिलन का इन्तजार एक कदम के सरहदों से लौटने से खत्म होते है कही कही इन्तजार वंसुधरा को भी है इन्तजार उसकी बंजरता के खत्म होने का कुम्हार के चाक को भी है इन्तजार फिर से जीवन की गति  लिये दौडने का गाँव भी कर रहा है एक इंतजार शहर का फिर से लौटने का।  कावेरी