हर औरत के भीतर
होता है एक वृक्ष
बडी मजबूती से
अनुभवों की जडे
पसारती है वो
भीतर से भीतर
निरतंर
बचती है वो दीमकों से
जो बैठा है जा उसके
स्वाभिमानी जडो पर
औरत के अतंस में
बहती है एक नदी
खारेपन की
ओढकर उस पर
परत फौलादी
दौडती है वो निरतंर
सघर्ष की धूप मे
नन्ही कपोलो के लिये
लेकर नमी
अचानक होता है उसे आभास
जड़ों से दूर होती
मिट्टी का एहसास
यातनाओ का चक्र
हाथ से समेटते रिश्ते
होते है रक्तरंजित
पत्तों का मौन होना
शुरू होता है वृक्ष का
ठूंठ हो जाना
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१६-०४ -२०२२ ) को
'सागर के ज्वार में उठता है प्यार '(चर्चा अंक-४४०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद मित्र
हटाएंअच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत सुन्दरता से पिरोया है वास्तविकता को
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