शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा “ आप कहां जा रही हैं ?’’ “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१६-०४ -२०२२ ) को
'सागर के ज्वार में उठता है प्यार '(चर्चा अंक-४४०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद मित्र
हटाएंअच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत सुन्दरता से पिरोया है वास्तविकता को
जवाब देंहटाएं