शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा “ आप कहां जा रही हैं ?’’ “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।
परिपक्व कविता।
जवाब देंहटाएंacchi rachna
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 20 फ़रवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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सरिता जी, कमाल बस कमाल 💐💐
जवाब देंहटाएंअहोभाव, एक प्रेमपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल सही बात कही जिस दिन डरना छोड़ देंगे लोग उस दिन कोई उन्हें दबा नहीं सकता और एक नए ही समाज का निर्माण हो जाएगा !
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा रचना.....
सार्थक संदेश देती बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
सही कहा है
जवाब देंहटाएंउफ्फ़ बहुत ही सुन्दर!
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