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रमा


शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही  थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी  एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान  भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा

 “  आप कहां जा रही हैं ?’’

 “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।‘’

रमा ने मन ही मन गणित जोड़ा मतलब ये घंटे भर में ही उतर जाएगी तो बचा हुआ सफर खिड़की वाली सीट पर बैठकर कट जाएगा । 

  “ नवलगुंद में घर है क्यां तेरा ?’’

 “नहीं बेटी ब्याही हैं । ‘’

तभी कंडक्टर और ड्राइवर दोनों एक साथ बस पर चढ़े बाजू में बैठी महिला ने दिर्घ श्वास छोड़ा । रमा ने पर्स में हाथ डालकर टिकंट के पैसे निकाले ड्राइवर सीट पर बैठा उसने ड्राइवर के हाथ में गुटके का पीला पैकेट देखां और कंडक्टर ने एक गाल में ये ज़हर भर रखा था । पिछले दस साल से इस ज़हर के पेकिट को लेकर आये दिन उसके पति के साथ झगड़ा तना रहता था । रमा ने बाजु में बैठी महिला से कहां

“ पता नहीं ये मौत का ज़हर क्यों मर्द गालों में भरते हैं ? ‘’

“ कहते हैं इसे खाने से तनाव से कुछ देर के लिए निजात मिलता है।‘’

  गाड़ी बस अड्डे को छोड़कर आगे बढ़ रही थी ।

“ हम तो तनाव जंन्म से ही कपाल पर बांधकर आए है ये ज़हर खांकर कुछ देर के सुकून के लिये ना गांठ में पैसे हैं ना समय हैं हमारे पास और जो जंन्म से ढों रहे हैं उससे मुक्ति तो मिट्टी ही देगी । ‘’

“आप इसी शहर में रहती हैं क्या ? ‘’

“ नही नही यहाँ पर एक विद्यालय में सहायिका का काम करती हूँ पहले गांव में थी अब यहां तबादला कर दिया है पिछले दो साल से इसी शहर में रह रही हूँ । ‘’

नवलगुदं आकर कब का गया बाजू में बैठी महिला उतर चुकी थी। अब रमा खिड़की वाली सीट पर थी । ड्राइवर ने इतनी जोर से ब्रेंक मारा पैर के नीचे रखी थैलीं गिरते-गिरते रमा ने हाथ से धर ली । बस रुकी तो उसने खिड़की से बाहर नंजर दौड़ाई सामने  नाई की दुकान में बड़ा सा आईना लगा था और उस आईने में चार -पांच मर्दों के चेंहरे नजर आये बस की खिड़की से रमा का भी चेहरा उस आईने में नजर आया एक क्षण रमा को लगा उसका चेहरा उन मर्दो के चेहरे की तरह ही लग रहा है । उसने गाड़ी के भीतर बैठे और खड़े सवारियों पर नंजर दौड़ाई मन को इत्तला किया नहीं नहीं वो औरत है भले घर की छत उसके ही कधें पर इन दिनों टिकी है पर वो औरत है पूरी सक्षमं औरत 

       उसके जेहन  में दो साल पहले कि घटना ने दस्तकं दी किस तरह से उसे गांव के विद्यालय से यहाँ दूर शहर के विद्यालय में भेजा गया था । सहायिका की छोटी सी तनख्वांह वाली नौकरी उस समय विद्यालय में विध्यार्थियों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही थी इस कारण अध्यापकों की भी छटनी की जा रही थी । पर ये सब अनुभव के आधार पर किया जा रहा था जो पहले काम कर रहे थे उन्हें नौकरी पर रख रहे थे लेकिन रमा के साथ नाइंसाफी हुई थी प्रिंसिपल ने पहले दिन ही बता दिया था कल शाम चार बजे संस्था के सभी सदस्यों आ रहे हैं इसलिए विद्यालय की छुट्टी होने के बाद मीटिंग के लिये सबको रुकना होगा  विद्यालय में सभी यही चर्चा कर रहे थे  की किसकी छट़नी होगी कौन रहेगा कौन जाएगा । रमा उदास होकर स्टोररूम में जाकर बैठ गई कुछ ही देर में विद्यालय की छुट्टी होने वाली थी । भारी मन से उसने ने झाड़ू हाथ में लिया तभी वहां पर वत्सला आई कुलमिलाकर तीन  सहायिका थी इस विध्यांलय में उसमें वत्सला सबसे पहले आई थी और उसे विश्वास था कि रमा और उसे नहीं निकाला जाएगा हां मालती को यहां आए तीन साल हुये थे इसलिये उसका जाना तय है।

“ रमा क्या सोच रही हैं चल घंटी बज गई झाड़ू लगाते हैं मुझे आज जल्दी जाना हैं घर “

रमा यंत्रवत उठी  हाथ में चल रहे झांडु की नोकों की तरह रमा के मन के भीतर बार-बार मालती की बेंफिक्री चूंब रही थी। वत्सला ने रमा को बहुतरे समझाया तसल्ली दी तुम्हें नहीं निकालेंगे । फिर भी रमा निश्चितं नहीं हो पा रही थी। अगले दिन सुबह जैसे ही रमा स्कूल गेट के भीतर पहुंचे प्रिंसिपल ने उसे आवाज दी

 

‘’जी सर’’

‘’ये कुछ फाइलें हैं इसे मीटिंग रूम में रखों ‘’

 रमा ने फाइलें उठाई और वो मीटिंग रूम की तरफ जाने लगी सामने से जोश्ना मैड़म आती दिखी उनके चेहरे पर उदासी थी रमा का दिल और घबरा गया उसने सोचा पता नहीं इन फाइलों से किस की फाइल हट जाएगी वत्सला और मालती पहले से मीटिंग रूम में साफ सफाई कर रही थी ।

शाम चार बजें मीटिंग रूम की कुर्सीयों पर संस्था के सभी संदस्य और प्रिंसिपल सर विराजमान थे । एक-एक कर सबकों बुलाया जाने लगा । वत्सला  मीटिंग रूम से जैसे ही बाहर आयी उसके कपाल पर की बड़ी सी बिंदी मानो खिलखिला रही थी ।

मन में अनेक संदेहों के पहाड़ लिऐ रमा मीटिंग रूम की कुर्सी पर बैठी ।

संदस्य 1 ‘’विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या कम हो रही है । ‘’

संदस्य 2 ‘’इस कारण हमें अधिक सहायिकावों की जरूरत नहीं है । ‘’

संदस्य 1’’ आप कहीं अन्य जगह पर काम ढुढ़ सकते हैं । ‘’

प्रिंसिपल ‘’ रमा जी आप यहां की पुरानी सहायिका है पर संस्था की अपनी मजबूरी है । ‘’

 संदस्य 2’’ तंनखा देना हमारे लिए मुश्किल हो रहा है । ‘’

 रमा ने हाथ जोड़े ‘’आप ज्ञानी लोग हैं कैसे भी पेट भर सकते हैं ,पर हम कहां जाएं घर में कमाने वाला मेरा ही हाथ हैं सर दया कीजिए और इस गांव में काम  मिलेगां भी नहीं  । ‘’

 संदस्य 2 ‘’समझने की कोशिश कीजिए । ‘’

पिछले चार साल से पति घर बैठा हैं । पहले मिस्त्री का काम करता था ,एक  रात काम से लौटते वक्त किसी ने गाड़ी ठोक दी और एक पैर से अपाहीज हो गया हम निसंतानों का और कोई सहारा नहीं हैं ,हमारी रोटी तभी बनती हैं ,जब हमारे हाथ में काम होता है । ‘’ पर वहाँ मौजुंद किसी भी संदस्य की आँखों में दया या सहांनभुती का भाव नहीं उमड़ा ।

संदस्य 2 ‘’आप हमारे शहर की संस्था के विद्यालय में जाने के लिए तैयार हैं तो वँहा हम आपको भेज सकतें हैं । ‘’

रमा ‘’ सर शहर में खर्चा और हमारी तनखां ऊपर से वँहा किराये के मकान में रहना यह सब नहीं होगा हमसे’’

 संदस्य 4’’ हमारे हाथ में कुछ नहीं पर आपको दूसरी संस्था में हम भेज सकते हैं और हमारे हुबली के विद्यालय में छात्रावास की व्यवस्थां है वहां हम आपके रहने का बंदोबस्त कर देंगे । ‘’

 कम पढ़े लिखे लोगों के पास ज्ञानी लोंगो की तरह सवाल जवाब ना ही तर्क वितर्क होते हैं । रमा के पास भाषा की भी चालाकी नहीं थी जिससे उन्हें प्रभावित करती । आते समय प्रिंसिपल सर ने कल आकर मिलने के लिए कहा बिना रुके रमा घर के रास्तें हो ली आज रमा को सड़क पर चलते समय सब कुछ अपरिचिता सा लग रहा था । उसके आंखों के सामने बार-बार आ रहा था वो था अपाहिज पति और एक कमर से झुका उसका घर जो मरम्मंत की आस लगाए बैठा हैं । आज उसके कधों का बल मानो निसटकर जमीन पर छितर गया था ।

     खिड़की के बाहर तारों ने सजायी आसमान की सुंदरता और पूर्णता मन को मोह रही थी फिर से उसका मन घर के भीतर आया जहां  विद्रूंप अंधेरा पंजे मारकर बैठा था । इस निशंब्द रात में कल के निवाले की चितां में केवल रमा अकेली चिंतित नहीं थी ,उसके साथ-साथ भास्कर भी आँखे मुंदे बिस्तर पर अपने अपाहिज पैर को कोस रहा था । उसने रमा को कहना चाहा फिक्र मत करो कुछ न कुछ काम मिल ही जायेगा पर उसके भीतर के पुरषार्थ ने उसको इजाजत नही दी । स्त्री और पुरूष दोंनो के लिये स्वाभिमान, मान-सम्मान इसकी परिभाषा  अलग-अलग होती हैं । जहाँ दुखं,त्रासदी,पिड़ा होती हैं वहाँ एक स्त्री सम्मान ,स्वाभिमान को परे रखकर सहारा, स्नेह देती हैं पर पुरूष चाहकर  भी ह्रदय की तरलता को उजागर नही करता  ।




         गांव में काम की तलाश करना बेकार था फिर भी वो अगले दिन उठकर गांव के डॉक्टर के पास गई डॉक्टर नें इस व्यंग के साथ ना कहा’’ गांववाले मेरे पास कम और ओझा बाबाओं के पास अधिक जाते हैं इसलिये मेरा ही गुजारा बड़ी मुश्किल से चल रहा हैं’’।

 शाम होते होते वो विद्यालय में आयी तब तक उसने मन में निर्णय कर लिया था की अब शहर के संस्था के विद्यालय जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं हैं।

    इस तरह रमा शहर के विद्यालय आ पहुंची उसके बाद हर शनिवार आना और सोमवार की सुबह लौट जाना भास्कर एक पैंर से लगड़ाता अपनी रूखी सूखी रोटी बनाकर खाता बस यही चल रहा था । बाद के दिनों में उसे पता चला कि मालती ने किस तरह संस्था के सदस्यों के साथ सांठगांठ करके अपने नौकरी बचा ली । घर पहुंचते-पहुंचते सुरज अपनी किरणों को समेट चुका था बस से उतरकर वो पहले बाबु बनयें के दुकान में गई उधारी चूकता करके कुछ सामान लेकर घर पहुंची बरामदें में भास्कर खड़ा उसका इंतजार कर रहा था । रविवार के दिन उसने मांस पकाया दोनोंने साथ बैठकर खाना खाया सोमवार की  सुबह फिर वह विद्यालय आ गयी । गांव के विद्यालय से भी अधिक  शहर के विद्यालय में उसका मन लगता । सभी अध्यापक रमा के साथ आदर और अपनेपन का व्यवहार करते थे । और यहां की अध्यापिकायें अक्सर उसे पुरानी और नई साड़ियां लाकर देती पर यह सब तो ठीक था । अपाहिज पति को अकेले गाँव में छोड़ आना उसके लिये बहोत कष्टकर होता जा रहा था उसने इन दों सालों में प्रिंसिपल  सर से कही बार कहा कि उसे वापस गांव के विद्यालय में भेजा जाए और उसने ये भी बता दिया किस तरह उसके बाद काम पर आई मालती ने संस्था के संदस्यों के साथ मिलकर नौकरी बचाई और उसे निकालकर यहां भेजा गया पर कोई फायदा नहीं हुआ ।

     इन दिनों भास्कर बहूत चिड़चिड़ा हो गया था उसे लगता अब रमा शहर छोड़कर आना नहीं चाहती हैं । हर शनिवार की तरह इस शनिवार रमा गांव पहुंची पहले की तरह भास्कर अब उसका इंतजार नहीं करता । दरवाजा बंद था दो-तीन बार आवाज लगाने पर भास्कर ने दरवाजा खोला

‘’बड़ी देर हुई तुम्हें आने में मुझे लगा इस शनिवार तुम्ह नहीं आवोगी ।‘’

 रमा चुपचाप रसोई में गई।

‘’अब धीरे-धीरे तेरा मन वही शहर में रम जायेगा । ‘’

 रमा से सहन नहीं हुआ ‘’शहर में सैर-सपाटा करने नहीं जाती हुं । ‘’

इतना कहकर उसने रसोई की साफ-सफाई शुरू कर दी बिच-बिच में वो बड़बड़ा रही थी।

 कक्षोओं में झाडुं लगाते-लगाते कमर का कांटा टूटने को आता हैं बाद में बस में तीन घटें खपना जान हलकं में आती हैं।

‘’हा हा पता हैं अब शहर से गांव आना पंसद नहीं है तुम्हें इस अपाहिज पति का अड़ंगा हो रहा है अब’’

 रमा के पैर दर्द से टूट रहे थे आज बस खचांखच भरी होने के कारण आधासफर उसे खड़े रहकर ही तय करना पड़ा था और आते ही भास्कर अपनी भड़ास निकाल रहा था । काम निपटाकर वो दहलीज पर आकर बैठ गई आज भास्कर की बातों से वो बहूत निराश हो गई थी पर क्या कर सकती हैं दहलिज के इस  पार आग जलाने के लिये दहलिज के उस पार जाना तो पड़ेगा ।

    भास्कर को पता नहीं आज क्या हो गया हैं चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था ।

‘’ तुम्हें शहर में अच्छा खाना नया-नया ओढ़ने पहनने के लिए मिलता है ना यहां बंजर गांव में रखा ही क्या हैं ? अब तुम वहीं रहना किसी दिन चिटियाँ चरेगी मुझपर तब आकर लकडियों का इंन्तजाम करके जाना दरवाजा हैं इसलिये ताला संभालना पड़ रहा हैं ना ‘’

     ‘’ मैं शहर में अपने शौक से नहीं गई हूं ना जाती  तो चुल्ले में आग नाचती ना पतेले में भात शिजता तेरे ‘’

 इस बात पर क्रोंध से भास्कर के नुंधने फुल गये चारपाई पर बैठे बैठे वही से हाथ में धरा लकड़ी का दंडा उसने रमा पर फेंक दिया ।  फिर भी वो तंटस्थ बैठी रही पर आँखें हथेलियों को भिगों रही थी । पुरुष अपने परिवार को छोड़कर कमाने जाता है तो उसे जिम्मेदारी की शाबाशी  देती हैं दुनिया और वहीं औरत अगर जाती हैं तो कुंमार्गी कही जाती हैं ।

            रमा को अब लग रहा था आस-पड़ोसी भास्कर के कान भर रहे हैं क्योंकि पिछले महीने दो लोरी पंत्थर उसने बगीचे में ये सोचकर लाकर डाले थे कि थोड़े पैसें जोड़कर कम से कम मिट्टी की कच्ची दीवारें निकाल कर पक्की बना देगी दुनिया की आंखों में दुखं उतना नहीं चुभता जितना किसी का सुखं  चुभ जाता है ।

 जून महीने की शुरुआत में ही उसने फिर से प्रिंसिपल सर को विनंती की इस बार तो गांववाले विद्यालय में भेजा जाये

‘’ इतनी जल्दी यह मुमकिन नहीं है रमा जी । ‘’

‘’पती को अकेले गांव में छोड़कर शहर में रहना मुश्किल हों रहा हैं सर  नहीं तो नौकरी छोड़नी पड़ेगी । ‘’

‘’ देखिऐ रमाजी नौकरियों की कमी है इस दुनिया में नौंकरी करने वालों की नहीं । ‘’

उदास मन से रमा स्टाफ़ रूम के पास से गुजर रही थी तभी प्रशान्तं सर ने उसे आवाज दी

‘’रमा जी । ‘’

वो स्टाफ रुम में गई उसे देखते ही मंजुला मैम पूछ बैठी

 ‘’क्यां हुआ ? चेहरा उतरा क्यूँ हैं ? ‘’

तभी धिरज सर ने कहा ‘’ प्रिंसिपल चेंबर में रमा जी चेहरा रखकर आई हैं  । ‘’

सब खिलखिला कर हंसने लगे मजुला मैंडम ने लड्डु का डिब्बां रमा की ओर बढ़ाया लड्डु की सोंधी सी खुशबू ने रमा के चेहर पर की उदासी पर विजय हासील कर दी अपनी परीशानियों को भुल उनके साथ वो भी खूब हंसी पर भूलना स्थायी नहीं होता विशेषकर दुख़ ………..

    हफ्तें की शुरुआत में बाजार जाकर रमा  प्लास्टिक का कपड़ा ले आयी गांव जाते समय लेकर जाने के लिए जहां छत से पानी टपकता है वहाँ डालनेके काम आयेगा ये सोचकर इस बरसात इसी से काम चलावूगी समस्याओं का ठोस समाधान जब हम नहीं कर सकते तो विकल्पं ढूंढकर खुद को तसल्ली देते हैं । शाम के छें बजे के आसपास बारिश शुरू हुई अंधकार जैसे-जैसे  गदंराता गया कड़कती बिजली अपनी अलग- अलग देह वृष्टि के साथ आसमान की छाती पर तांडव करने लगी । उसने भास्कर को फोन लगाया फोन बंद आ रहा था बिजली का प्रकाश बार-बार हॉस्टेल के कमरे में एक क्षण दस्तक देकर जाता और कोने में रखा पिले रंग का प्लास्टिक का कपड़ा रमा के साथ आंख मिचौली खेलता

रमा का मन भाग रहा था घर के भितर घर के बिच्छवाडे  फिर से उसने भास्कर को फोन लगाया पर......

           रमा का हॉस्टेल विद्यालय के पिछे ही था इसलिये विद्यालय की चाबियाँ रमा के पास ही होती  । सफाई कर्मचारी सात बजे आते थे  रमा तब तक विद्यालय का गेट खोलकर कक्षाओं को भी खोल देती कल की बारिश में बरामदें में पानी एकट्टा हुआ था । बरामदें में तरह-तरह के फूलों के गमलें रखें थे कल रात के तेज हवा से गमलों में उगे कहीं रंगो के फूल बारिश में जमा हुए पानी के उपर तैर रहे थे रमा झुककर धीरे से उन पानी पर तैरते फूलों को इकट्ठा करने लगी तभी नीचे गेट के पास गाड़ी के रुकने की आवाज आई रमा खड़े होकर  नीचे देखने लगी सफेद रंग की कार गेट के पास रुकी थी । प्रिंसिपल सर इतनी जल्दी क्यों आए हैं शायद दूसरे शहर जा रहे हैं विद्यालय के काम से कागजात लेने आए होगें अच्छा हुआ मैं समय पर आ गई तब तक प्रिंसिपल सर उसके पास पहुंचे रमा की अंजूरी नाना रंगों के फूल से भरी थी ।

उसने प्रिंसिपल की और अभिवादन करने के हेतु देखा तो उनके चेहरे पर का गंभीर भाव देख उसे धैर्य नहीं हुआ  । जैसे ही उसने अपनी अंजुरी मुट्ठी में  तंब्दील कर ली फूलों ने देह और रंग छोड़ दी । तभी प्रिंसिपल के चेंबर में सें घंटी की आवाज आयी रमा  उस और दौडी  प्रिंसिपल ने उसे जयश्री को बुलाने का संदेश थमा दिया ।

   जयश्री लाइबरी की साफ सफाई का काम देखती थी जयश्री को आवाज देकर वो वापस आ गई और अपने काम में लग गई  तभी फिर से प्रिंसिपल के ओफिस में से घंटी की आवाज आने लगी कुछ समझ नहीं आ रहा था वहां जयश्री तो है ही फिर किसको बुला रहे हैं प्रिंसिपल सर वो चेंबर में पहुंची तो देखा उन दोनों के चेहरे भय और शोंक से लिप्त थे । प्रिंसिपल सर ने उसे बैठने का इशारा किया पर वो खड़ी ही रही जयश्री ने उसके कंधे पर हाथ रखा ।

प्रिंसिपल सर ने अपने मोबाइल की तरफ देखते हुये कहां ‘’ सुबह छें बजे तुम्हारे गांव के विद्यालय के प्रिंसिपल का फोन आया था तुम्हारे गांव में लगादार हुई बारिश के कारण पानी भर गया हैं और बहुत से घर डुब गये तुम्हारे घर में भी पानी भर गया है । ‘’

इस समय रमा के मन-मस्तिष्क का आंकलन करके उसे शब्दों में बया करू तो ठिक उसकी स्थिती वैसे ही थी जैसे  मिट्टी से उखड़कर एक वृक्ष गीर गया और उसकी जड़े नंगी होकर जमीन पर बिखरी हैं ।

 रमा ने पुछा ‘’और भास्कर ‘’

प्रिंसिपल ने रमा के चेहरे पर से नजर हटायी और दीवार की तरफ देखते हुये कहा ‘’’नही नही वो ठीक है राहत शिविर में हैं तुम्ह जयश्री के साथ गाँव चली जाओ  । मैं ड्राइवर को भेज देता हूं वह पहुंचा देगा  तुम दोनों को ‘’रास्तें भर में रमा के मन में सवाल उठ रहे थे और जयश्री के  पास उन्ह सवालों के जवाब होने के कारण उसका मन बाहर उमड़ते  बादलों की तरह बरसना चाहता था पर पूरे रास्ते उसने उस आवेग को अपने भीतर दबाए रखा ।

     एक बजे के आसपास गांव की सीमा के भीतर कार दाखिल हुई मंदिर का मोड़ आते ही रमा ने कहा ‘’आगे बस आगे हैं मेरा घर’’ इतना कहते ही  रमा  के कंठ  में मानों पाषाण अटक गया और आंखें ढूंढने लगी रास्ते पर से खेती के उस पार का घर, बस्ती पीछे का पहाड़  पर दृष्टि के फैलाव में केवल जलराशीयां ही जलराशीयां नजर आ रही थी पर इस समय यह दृश्य रमा की नजरों में बंजरता ही दर्ज कर रहा था । दरअसल पानी भरने से नहीं बल्कि पीछे का पहाड़ सरकर आया और रात्रि के काल में बस्ती के कुछ घरों को अपने जबडों से चबाकर  नीगल गया था ।

  गांव में घटी घटनाएं वैसे भी प्रशासन और सरकार के कानों में तब तक नहीं पड़ती है जब तक उस गांव से उनका खास नफा नुकसान जुड़ा नहीं होता है । मलबा हटाने का काम बहुत देर से शुरू हुआ  शिनाख्तं करना मुश्किल हो रहा था एक एक करके बीस लाशें कतार में रखी कुछ नंगी कुछ के कपड़े साबुत थे बारीश की बुंदे उन लाशों की गली चमड़ी पर गीर रही थी और दुसरी ओर परिजनों गाँववालों की भीड़ में रमा उन्ह बुंदों के सहारे धुलती लाशों को पहचानने के मरणासन्न पीड़ा से गुजर रही थी। निसंतान को कौन अग्नि देगा ये सवाल ही नहीं उठा बल्कि जीवन भर रमा और भास्कर मरने के बाद हमें कमसेकम अग्नि देने के लिए तो संतान चाहिए थी इसी दर्द में कुटते रहे  ।

      रमा मलबें के पास पहुंची पहाड़ की मिट्टी निकालकर भले ही पहाड़ को लौटा दी थी पर वापसी में पहाड़ अपने साथ दुगना लेकर गया था । बारिश  मिट्टी धोकर ले जा रही थी और जगह-जगह टूटे-फूटे सामानों के ढेर डाल कर रखे थे । पर इन सामानों में मेरा कुछ सामान भी हो सकता है यह खयाल तक रमा के मन में नहीं आया । जिस और उसकी नजर जाती आँखे आंसुवों की धार लेकर लौट आती ।

करीब एक महीने के बाद रमा विद्यालय आयी आते समय एक संन्नाटा अपने साथ लायी थी , जिसे वो रोज बुनती और उसपर  दिन  कांथती स्मृतियों के चक्र पर घुमाकर कितने ही शनिवार आकर तीन बजे के बस के साथ उदास होकर लौट गए ।

एक दिन प्रिंसिपल सर ने रमा को बुलाकर कहा

 ‘’ रमा जी आपको हम आपके गाँव वाले विद्यालय में भेज रहे हैं, पिछले दो साल से आप कह रही थी ना ‘’

रमा ने खिड़की के बाहर नजर दौडाते हुए कहा

‘’ सर अब मेरा कोई गाँव नहीं है, गांव अपनों से बनता है , अब मैं  कहीं पर भी रहु कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।  ‘’

‘’पर आप की  इच्छा थी ना रमाजी ‘’

 ‘’इच्छाऐ ,उम्मीदें अपनों से जुड़ी होती है सर अब  गांव जाने का कोई कारण ही नहीं बचा तो क्या करूंगी जाकर’’ ।

 इतना कहकर वो लौटी  अचानक उसे कुछ याद आया और वो प्रिंसिपल सर की तरफ मुड़ गई पर्स में से कुछ पैसे निकालकर प्रिंसिपल सर की  ओर बढ़ाते हुए उसने कहा

‘’ सर पांचवी कक्षा में रोमा नाम की एक लड़की है ,बाप मर गया है माँ अस्थंमा की रोगी हैं इधर -उधर से गुजारा कर रही हैं अब हर महीने मैं रोमा की स्कूल  फीस जमा कर दूंगी । ‘’

  प्रिंसिपल सर देर तक सोचते रहे धनी होकर दान करना बहुत साधारण सी बात है , पर निर्धनी होकर दान करने की क्षमता विरल ही लोग रखते हैं । कभी-कभी दु:ख मनुष्य को तोड़ता नहीं है, बल्कि किसी दुंखी व्यक्ति के पीछे सहारा बनकर  खड़ा रहना भी सिखाता है शायद.... 




 

 


टिप्पणियाँ

  1. बेहद प्रभावशाली धन्यवाद अच्छी कहानी के लिए

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  2. एक मार्मिक कहानी, निम्नवर्गीय सेवारत महिलाओं के सामाजिक जीवन की

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  3. बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है, एक औरत के दर्द को तो उसका पति भी नहीं समझ पाता है।

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