उन्ह बदनाम गलियों में
रोज शाम खडी होती है मजबुरी
तलाशती है चुल्हे की आग
गली के चौराहे पर
खड़ी हो जाने से पहले
वो खड़ी हो जाती है
आईने के सामने
लेकर अपना
जख्मी देह तथा रक्तरंजित मन
करता है आईना भी
कभी कभी बेईमानी
दिखता है उस औरत को
आवरण के पीछे का अश्क
वो मुँद लेती है आँखे
और तलाशती है खुद को
तभी समय का काँटा
चुभ जाता है आँखो में
प्रहरा कर जाता है आंतो पे
आँखो को खोलकर
बंद करती है काजल से
वो मार्ग जहाँ से
अभी अभी उसने की थी कोशीश
खुद को तलाशने की
ग्राहक उसके होंठो को
रोज रंगाता है कालिख से
रोज वो उसे लेप देती है
पिढा की लाली से
वो सजाती है अपने माधे
प्रेम रहित लाल बिंदी
और तलाशती है रोज
खाली डिब्बीं में
थोडा सिदूंर सम्मान का
मार्मिक कविता, सुंदर रची गयी
जवाब देंहटाएंधधन्यवा मितमि
जवाब देंहटाएंदर्द में डूबी कहानी की असलियत लिखी है ... काश कोई उनका दर्द समझ सके
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील रचना।
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