पावस के दिनों में
कुएंँ में उडेली गगरी
क्षण भर में
अपनी भरी देह
लिए आती है लौट
वे दिन प्यास से मर जाने के
नहीं तृप्ति के होते हैं
मोल नहीं खटकता
जीवन का तब
नजरअंदाज करते हैं हम
कितनी आदमियत
बची है आदमी में
वो तो तब खटकता है
जब सुख जाते हैं कुएँ
धरती तपती देह लेकर रोती हैं
मर जाती है पुतलियाँ मछलियों की
वे दिन होते हैं दुख के
और अतृप्ति के
और तब खटकती है
इर्दगिर्द मौजूद आदमियों
के भीतर बची है
कितने आदमीयत
उल्लास नहीं सताप
परिभाषित करता है
इंसानियत
कटु सत्य, धारदार अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सच कहा आपनें ,उल्लास नहीं संताप परिभाषित करता है इंसानियत !
जवाब देंहटाएंउल्लास नहीं सताप
जवाब देंहटाएंपरिभाषित करता है
इंसानियत
बहुत सही!
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति...👏👏👏
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